आधुनिक धर्मगुरु सर्वसुविधा संपन्न हैं। शिष्यों की अच्छी खासी फौज उनके पास होती है जो उनकी भौतिक पारिवारिक आवश्यकताओं का ध्यान रखती है। आधुनिक गुरु संन्यास के नाम पर अपनी पारिवारिक अवं सामज्कि दाइत्वों से लगभग मुक्त से हो जाते हैं। उन्हें फ़िर घर परिवार की फिक्र नही करनी पड़ती। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं यथा रोटी, कपड़ा, मकान की फिक्र नही रहती। सब कुछ शिष्यों द्वारा प्रबंध कर लिया जाता है। ऐसे मैं उपदेश देना कितना सहज है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. काफ़ी समय पहेले एक विज्ञापन की पक्तियां कुछ यूँ थी- लाइफ में हो आराम तो आइडिअज़ आते हैं। क्या ऐसा नही की वे इसीलिए उपदेश देने में कुशल और पारंगत होते हैं।
देखने में तो लगता है की ये उपदेशक गेरुए या सफ़ेद वस्त्रों में नज़र आते हैं, किंतु उन वस्त्रों की चमक आंखों को चुंधिया देती है। आश्राम के नाम पर अकूत ज़मीन जायदाद के मालिक होते हैं। उनके आश्रम आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित होते हैं। उम्दा बेशकीमती फर्नीचर वातानुकूलन के उपकरण, लम्बी चमचमाती गाडियाँ सब कुछ होता है। इतना ही नही आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के नाम पर बड़े बड़े उद्योग स्थापित कर लेते हैं और खूब कमाते हैं जिससे दूर रहने का उपदेश देते हैं। आश्रम में महँगी से महँगी दवाइयाँ बेचीं जाती हैं। धर्म के नाम पर अच्छा खासा व्यापार फैला हुआ है। उनके प्रवचनों की सीडीयाँ कस्सेट्स किताबें मालाएं तस्वीरें तावीज़ और औषधियों का व्यापार उफान पर है। इससे जन साधारण को कितना और कैसे लाभ हो रहा है, अज्ञात सा ही है। किंतु उनका ख़ुद का फायदा ही फायदा है। लगातार कथाएँ करते करते अधिकतर कथावाचक थके थके और बेनूरी से लगते हिं।
धर्म के नाम पर प्रचुर धन खर्च कर दिया जाता है। इनका , अपवादस्वरूपकुछेक को छोड़ कर , सामाजिक हित की दिशा में यथा शिक्षा आदि के प्रचार प्रसार में योगदान लगभग शून्य है। व्यक्ति के जीवन में रोग, शोक, दुःख दर्द इनके धार्मिक उपदेशों से नही मिट रहे। और न ही जीवन के भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त कराने में ये पूर्णतया समर्थ हो पा रहे हैं। क्या उपदेशों से गरीबी, अलगाववाद आतंकवाद जातिवाद भ्रष्टाचार दूर हो सके हैं? कन्या भ्रूण हत्याएं बदस्तूर जारी हैं। धार्मिक उपदेश लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवाने में असमर्थ हैं।
मन्दिर आस्था के केन्द्र न होकर व्यापार के केन्द्र बनते जा रहे हैं। मंदिरों के आड़ में अतिक्रमण सहज ही हो जाते हैं । लाखों करोड़ों रुपये खर्च करके मन्दिर आदि तो बनवा दिए जाते है, पर सूदूर गाँवों में शिक्षा मन्दिर नही बन पाते। आए दिन पदयात्राएं होती रहती हैं, पर इनसे लोगों में गुणात्मक eपरिवर्तन होता नही दिखाई देता। पदयात्राओं से व्यक्ति में धैर्य , संयम आदि गुणों का विकास या आविर्भाव sहोना चाहिए ।
व्यावसायिक कथावाचक येन केन प्रकरेणलोगो को भावनाओं के सागर में बहा ले जाते हैं और उन्हें विशवास दिलाने में सफल हो जाते हैं की कथा मात्र सुनने से उनका मोक्ष हो जाएगा। लोग जीते जी तो शांत और सुखी नही महसूस करते हैं किंतु मोक्ष की लालसा में वे कुछ भी कर ने को तैयार हो जाते हैं। धर्मोपदेशक देश की सेवा कैसे कर रहे हैं , समझ से बाहर है। उनकी कथाओं से लोगो पर कैसे सकारात्मक प्रभाव पड़ता है , विचारणीय विषय है। देश को अच्छे नागरिक नही मिल रहे हैं, सचरित्र और संस्कारित लोग खोजेने से भी नही मिलते हैं। आज समय की मांग है की मानव को मानव के प्रति स्नेहपूर्ण बनाना, जातिवाद के दंश को दूर करना, देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और गरीबी दूर करना जो धार्मिक उपदेशों से सम्भव नही हो पा रहे हैं। के और उन्हें यह विशवास दिलाने में सफल हो जाते हैं
2 Comments:
भाई! इसके लिये सीधे सीधे जनता भी उतनी ही दोषी है क्योंकि सब जानते हैं कि अकलमंद की रोटी के लिये बेवकूफ़ मेहनत करता है इसलिये बाबा अपनी दुकान चला रहे हैं और जनता दान करे जा रही है। आपने कस कर पेला है
सादर
डा.रूपेश श्रीवास्तव
ये तथाकथित धर्मगुरू वास्तव में वौ लोग हैं, जो कि तरह तरह के पाखंड रचकर और भगवा चौला औढकर बिना ज्ञान के धर्म की बात करते हैं,जब कि इन लोगों को यह पता ही नहीं कि धर्म वास्तव में होता क्या है? लेकिन इसमे सारा दोष उस जनता का है, जो कि बिना अपनी बुद्धि का प्रयोग किए भेडों के झुण्ड की तरह एक के पीछे एक पंक्तिबद्ध चलने लगती है। जब तक लोगों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं होगा, तब तक इन बाबा लोगों की दुकानदारी ऎसे ही चलती रहेगी।
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