ये और बात है हम तुमको याद आ ना सके



शराब पी के भी हम तुमको भुला ना सके



ये फासलो की है बसती इसी लिये यारो



वो पास आ ना सके हम भी पास जा ना सके



सुकु दिया है ज़माने को मेरे नगमो ने



अज़ीब बात है खुद को ही हम हसा ना सके


पत्थर की है दुनियाँ जज़्बात नही समझती

दिल मे क्या है वो बात नही समझती

तन्हा तो चाँद भी है सितारो के बीच

मगर चाँद का दर्द बेवफा रात नही समझती

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हम दर्द झेलने से नही डरते

पर उस दर्द के खत्म होने की कोई आस तो हो

दर्द चाहे कितना भी दर्दनाक हो

पर दर्द देने वाले को उसका एहसास तो हो

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उनको अपने हाल का हिसाब क्या देते

सवाल सारे गलत थे हम जवाब क्या देते

वो तो लफ्ज़ो की हिफाज़त भी ना कर सके

फिर उनके हाथ मे ज़िन्दगी की पुरी किताब क्या देते

फिल्मों और टी.व्ही. का हास्य अश्लील तथा पत्र-पत्रिकाओं का हास्य राजनीतिक हो गया है । इस होली में यही देखने और पढने में आया । अश्लीलता मुझे पसंद नहीं और राजनीति में मेरा भरोसा नहीं । अतः इया होली में लिखी गयीं लगभग दर्जन भर रचनाओं में से कुछेक को छोड़कर सभी पत्र-पत्रिकाओं द्वारा दरकिनार कर दीं गयीं ।
होली पूर्व एक प्रतिष्ठित अखबार के स्थानीय कार्यालय में एक व्यंग्य लेकर पहुंचा । तथाकथित सम्पादक जी ने मेरी रचना के पन्नों को फटाफट पलटा और आखिरी पन्ने को यों पकड़ा की शेष पन्ने हवा मैं झूल रहे थे , मानों वे कोई सड़े हुए मरे चूहे की पूँछ पकड़कर फेंकने जा रहे हों; बोले, 'लोकल नेताओं पर कुछ लिखो ।' मैनें कहा, 'में एक सरकारी मुलाजिम हूँ इसलिए ऐसा नहीं कर सकता ।' वे बोले, ' अपनी पत्नी के नाम से लिख दो ।' मैंने असमर्थता व्यक्त की और माफ़ी मांगकर बेदखल हो लिया । तिस पर मजाक ये कि उनके होली अंक में जो व्यंग्य छापा उसमें व्यंग्यकार ने मेरी दस साल पुरानी क्षणिका उद्घृत कर डाली ।
एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में बड़े ओहदे पर पदासीन मित्र ने मोबाइल किया - ' क्या बात है, आजकल लिखना बंद कर दिया क्या ? इस त्यौहार में दिखे नहीं !' 'बस ऐसे ही, मैं कोई स्तरीय लेखक तो हूँ नहीं कि हर पत्रिका में दिखूं !' मैंने अपना गुबार निकाला । वह साहित्य प्रेमी है और किसी बुक स्टाल पर पत्रिकाए पलट रहा था । बोला, ' यार मन ऊब गया है वही पुरानी रचनाएं पढ़कर । दर्जन भर पत्रिकाओं में वही दो तीन दर्जन लेखक । राजनेताओं की पोल खोलने के बहाने लिखी गयीं रचनाएं । आम जनता क्या मूरख है जो अनजान है इनसे ? खैर ! जो भी हो नेत्ताओं से स्वार्थ सिद्धि में लगीं पत्र-पत्रिकाएँ ऐसा करके उन्हें खुश करतीं हैं बस । बचा-खुचा पढ़ाकू पाठक दूर भागता है । '
हमारे एक मित्र लेखक जिस साप्ताहिक के लिए लिख रहे थे उसकी आलाकमान बदल गयी । पत्रिका को स्तरीय बनाने कवायद की जा रही है । आज पत्रिका के मुख्य पृष्ठ को ना देखें तो अन्दर के पृष्ठ से ये अनुमान लगाना मुश्किल कि आज की कौन सी स्तरीय पत्रिका हाथ में है ! आज कितनी ही पत्रिकाए एक-रसता के कारण दम तोड़ चुकीं हैं । ऐसी पत्रिकाओं को साहित्यकारों की आलाकमान के साथ कुबेबाज़ी ले डूबी ! पाठक नए की तलाश में पढता नहीं और नए साहित्यकार स्थानीय स्तर पर पनपता है और मर जाता है ।
आज पत्रिकाओं को स्तरीय बनाना आसान हो गया है । बहु-प्रकाशित साहित्यकारों की रचनाओं को बिना पढ़े उठायें और छाप दें । अब ऐसे सम्पादक कहाँ कि रचनाओं को पढने में सिर खाफएं और व्यक्तिगत पत्र से सूचित करें । अब तो सम्पादकीय भी इन्टरनेट से उठाकर लिखे जाते हैं ।
कहते हैं - हिंदी साहित्य मर रहा है ? क्या इसके लिए लेखक, मिडिया, सम्पादक और पत्र-पत्रिकाएं ज़िम्मेदार नहीं ?