क्या सचमुच कश्मीर में भारतीयता की अनदेखी हो रही है...? मन में यह सवाल उठता है आज दिनांक- 03.05.2010 को दैनिक जागरण में प्रकाशित यह आर्टिकल पढ़कर "......... हवाई अड्डे से शहर जाते हुए श्रीनगर बंद की खबर मिली। दिल्ली के लाजपत नगर विस्फोट कांड में दो कश्मीरी आतंकवादियों को सजा सुनाए जाने के विरोध में हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने बंद रखा था। बाहरी इलाके में बंद के बावजूद दुकानें खुली थीं और जरूरत का सामान मिल रहा था। बीच शहर में सन्नाटा था और पथराव की खबरें मिलीं। जिसमें एक कश्मीरी युवक मारा गया। लेकिन गिलानी समर्थकों के पथराव में मारे गए युवक की मृत्यु का विरोध कौन करता? इस सबके बावजूद कश्मीर में भारत के कोने-कोने से पर्यटक सपरिवार आ रहे हैं। खतरों के बीच भी भारतीय नागरिक जिस साहस और आनंद के साथ कश्मीर घूमने आ रहे हैं, वह हमारी जिजीविषा का ही प्रमाण है। लेकिन कश्मीर में अलगाव की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि किसी से बात करने में इंडिया और कश्मीर जैसे शब्द ही सामान्य रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं। भारत से एकता की बात करना यहां खतरनाक माना जाता है। यहां देशभक्ति का अर्थ बताया जाता है कश्मीर के भारत से अलगाव का समर्थन। शेष देश से मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में कांग्रेस के अलावा किसी का घाटी में प्रभाव दिखता नहीं। भाजपा काफी कोशिश कर रही है। गत विधानसभा चुनावों में उसके 25 मुस्लिम उम्मीदवार भी खड़े हुए थे। भाजपा का अपना कार्यालय है, जहां वे हिम्मत के साथ तिरंगा भी लहराते हैं और राष्ट्रीय दिवसों पर कार्यक्रम भी करते हैं। उनके नेता सोफी यूसुफ यहां वतनपरस्ती और हिंदुस्तानियत की बातें करते हैं। उनका असर सीमित होते हुए भी यह बात बहुत हिम्मत और हौसले की है। शाम को मुझसे मिलने श्रीनगर के कुछ ऐसे बुद्धिजीवी आए जो भारत से जुड़े रहना चाहते हैं, तिरंगे के प्रति वफादार है लेकिन आतंकवाद और कश्मीर की विभाजनकारी राजनीति के कारण कुछ कह नहीं पाते। उनकी अनेक वेदनाओं में एक प्रमुख थी- दिल्ली के शासक कश्मीर को शेष भारत से जोड़े रखने की ईमानदार कोशिश ही नहीं करना चाहते। उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी। अगर वास्तव में दिल्ली कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग मानती है तो फिर कश्मीर के लिए अलग झंडा क्यों? कश्मीर में धारा 370 भी जारी रखना चाहेंगे और यह भी चाहेंगे कि कश्मीर के लोग खुद को भारत का वैसा ही हिस्सा समझें जैसे बिहार या तमिलनाडु के लोग मानते हैं, यह क्या संभव हो सकता है? कश्मीर के जितने भी अलगाववादी नेता और पार्टियां हैं, वे भारत सरकार की सुरक्षा का मजा लेती है, उनके हर छोटे-बड़े बीमारी के खर्च भी भारत सरकार वहन करती है, उनको दिल्ली में बड़ी इज्जत से बुलाया जाता है, जहां ज्यादातर नेताओं की संपत्तियां हैं और जब किसी बड़ी घटना पर उन्हें गिरफ्तार भी किया जाता है तो उन्हें शानदार बंगलों में रखा जाता है। जबकि कश्मीर में भारतीय देशभक्ति की बात करनेवाले न दिल्ली में इज्जत पाते है, न श्रीनगर में। तो फिर कोई घाटे का सौदा क्यों करें? कश्मीर के बेरोजगार नौजवान यहां की सियासत में भटक गए हैं। दिल्ली से कोई उनके बीच रिश्ते या संवाद करने कभी आता नहीं। क्या यहां सारी आबादी दहशतगदरें के हवाले कर दी है? कोई निर्दोष किसी की भी गोली से मरे, क्या उनके घरवालों को हमदर्दी की जरूरत नहीं होती? जब भी कश्मीर की बात होती है जम्मू और घाटी के वैमनस्य, सारे कश्मीरियों को आतंकवाद समर्थक रंग में रंगने और सिर्फ फौजी समाधान ढूंढ़ने की ही चर्चा क्यों होती है? कश्मीर में यदि कोई देशभक्ति की बात करे तो उसका बचाव करने वाला कौन है- दिल्ली, श्रीनगर या कोई नहीं? दिल्ली के जो शासक श्रीनगर में वतनपरस्ती और तिरंगे की बात करने वालों को रक्षा नहीं दे पाते, वे क्यों यह उम्मीद करते हैं कि कश्मीर की नई पीढ़ी भारत के प्रति देशभक्त बनेगी? कांग्रेस ने आज तक कश्मीर में सिर्फ उन नेताओं और पार्टियों का साथ दिया जो शेष भारत के साथ कमजोर संबंध तथा भारतीय सत्ता को अस्वीकार करते हुए चलने के पक्षधर रहे। कभी भी कांग्रेस के मंच से कश्मीर में ऐसे नेता सामने नहीं आए जो भारतीयता के सबल पक्षधर होते। फिर यहां अलगाववाद नहीं पनपेगा तो क्या एकता की फसल लहलहाएगी? पांच लाख कश्मीरी हिंदुओं के निर्वासन को दो दशक बीत गए। किसने, क्या और कितना किया उनकी घर वापसी सुनिश्चित करने के लिए? सिर्फ पैसा फेंककर और फौजें लगाकर समाधान नहीं हो सकता। दिल्ली के राजनेता राजभवन तक आते हैं। यहां के आम आदमी को शेष भारत के साथ पूरे मनोयोग से जोड़ने वालों को सुरक्षा देने के लिए उन्होंने आज तक क्या किया? ये प्रश्न हमारे नेताओं के लिए असुविधाजनक हो सकते हैं। पर सच यह है कि कश्मीर के जख्मों के लिए यदि कोई सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वह है दिल्ली की ढुलमुल नीति। आज कश्मीर अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति का अखाड़ा बन गया है, जहां भारतीयता के दायरों को लगातार दिल्ली के धृतराष्ट्रों ने अपनी गलतियों से सिकोड़ा है। कश्मीर में ईमानदार चुनाव वाजपेयी सरकार के समय हुए और उसी समय कश्मीर समाधान की सबसे घनीभूत संभावनाएं प्रबल हुई थीं। कश्मीर में अपनी राजनीतिक सत्ता के लिए भारतीय हितों की बलि चढ़ाने वाले दल और नेता कश्मीर समस्या का समाधान नहीं निकाल सकते। दिल्ली की ईमानदारी और राष्ट्रीयता के प्रति अविचल निष्ठा के साथ बनी नीति पर यदि अमल किया जाए तो धरती का यह स्वर्ग आत्मीयता की गंध पुन: दे सकता है।"


सधन्यवाद- दैनिक जागरण