हँसते हुए आँखों में क्यों आ जाते है आँसू
क्यूँ खुशी को अधूरा सा बना जाते है आँसू
दर्द इतना है सहा, हो गया समुंदर अश्कों का
जाने कहाँ से फ़िर भी आंखों में भर जाते है आँसू
खुश हूँ मैं कोई शिकवा ज़माने से न तकदीर से
मेरी इस बात को झूठा कर जाते है आँसू
शायद ख़बर है उनको भी किस कदर तनहा हूँ मैं
तन्हाई में मेरा साथ निभा जाते है आँसू


दुआ है कि वो अब ख़्वाबों में न मिले
और मेरी आंखों में कोई आँसू न मिले
वो मेरे दीदार के लिए बेहद तड़पे
और उससे मेरा साया भी न मिले
जो ग़लत-फ़हमी हम दोनों में है
ढूँढने से भी उसको कोई उसका सिरा न मिले
मेरी यादों की उलझन में इतना उलझ जाए
कि यादों से भागने का रास्ता न मिले
मेरी बातों के समुंदर में इतना डूबे
कि भूलकर भी उसको कोई किनारा न मिले
जिस दिन मिलना उसी दिन ही बिछड़ना
अब हमें मिलाने वाला कोई दिन न मिले
बंद आँखें जब भी करे सोने के लिए
नींदों के देश का कोई रास्ता न मिले
मैं दूर उस से इतनी दूर चली जाऊं
कि मेरा उसे कोई भी निशाँ न मिले
मेरे दिल को बे-दर्दी से तोड़ने वाले
अब तुझको मुझ सा कोई न मिले
चाहतों का मौसम दो दिन में गुज़र गया
मुझ सी चाहने वाली अब उसे कोई न मिले
मेरी आंखों से ख्वाब छीनने वाले
तेरे लिए दुआ मैं मांगू पर तुझे मेरा प्यार न मिले

with.spl.thx- Vibha


दो दिन का है ये प्राण पंछी
कर ले तुझको जो भी है करना
कल हम सबको यहाँ से है जाना
दुखों के पहाड़ खड़े है राह में
जूझते रहना सफलता आएगी हाथ में
इस कठिन राह पर तुझको है चलना
कोई न जान सकेगा तेरे दिल के दर्द को
फैला देना तेरी खुशबू और हर्ष को
गम पी के तुझे सब कुछ है सहना
जाने न जाने ये दुनिया तुझे
तू तो एक हस्ती है तेरे मन् की
खुदको ही हंसकर इस हस्ती को है निखारना
ये है जीवन का सच
जो मैंने तुझसे मिलकर है जाना

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है.
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है.

मै तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर कैसी है.
ये तेरा दिल समझता है, या मेरा दिल समझता है.

मोहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है.
कभी कबीरा दिवाना था, कभी मीरा दीवानी है.

यह सब लोग कहते हैं, मेरी आँखों में आँसू हैं.
जो तू समझे तो मोती हैं, जो न समझे तो पानी हैं.

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नहीं सकता.
ये आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नहीं सकता।

मेरी चाहत को अपना तू बना लेना मगर सुन ले.
जो मेरा हो नहीं पाया, वो तेरा हो नहीं सकता.

मै उसका हूँ वो इस एहसास से इनकार करता है।
भरी महफिल में भी रुशवा मुझे हर बार करता है।

यकीं है सारी दुनिया को खफा है हमसे वो लेकिन,
मुझे मालूम है फिर भी मुझी से प्यार करता है।

साभार - डॉ. कुमार विश्वास


है समस्या बेटे अगर समाधान हैं बेटियाँ
तपती धुप में जैसे ठंडी छाँव हैं बेटियाँ
होकर भी धन पराया हैं सच्चा धन अपना
दिखावे की दुनिया में महादान हैं बेटियाँ
अपनी बधाई की और की सबने बहुत चर्चाये
हैं धान्प्ती कमियों की मेहरबान हैं बेटियाँ
तनावभरी गृहस्थी में हैं चारो और तनाव
व्यंग-बाणों के बीच कैसी ढाल हैं बेटियाँ
हैं दूर वे हम सब से फ़िक्र उन्हें हमारी
करती दुआएं हरदम खैरख्वाह हैं बेटियाँ
है बेटा अगर ये रोशन जिससे
दो घर जिनसे रोशन अफताब हैं बेटियाँ
हैं लोग वो जल्लाद जो ख़त्म उन्हें है करते
टिका जिन पर परिवार वह बुनियाद हैं बेटियाँ
मांगती हैं मन्नत बेटों की खातिर दुनिया
अपनी नज़रों में दोस्तों महान हैं बेटियाँ
WST-Neel
आज विज्ञानं जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उसी अनुपात में विवेक शक्ति का ह्वास होता जा रहा है। जिससे अशांति और अराजकता में वृद्धि हो रही है। मनुष्य भौतिक सुविधाओं से संपन्न होते हुए भी मानसिक संतुलन खोता जा रहा है। स्नेह और संवेदनशीलता की कमी आती जा रही है। इससे सम्पूर्ण मानव जाती का ही नुक्सान हो रहा है। इससे बचने का एक मात्र सहज सुलभ मार्ग है - सत्संग! इससे विवेक जागृत होता है। और विकसित होता है। जिससे विज्ञानं और धर्म में सामंजस्य और सामान्तर विकार होता है। जो जीवन को सारा , शांत और संतुलित रखता है। यही जीवन जीने की कला है।
रामचरित मानसा में लिखा है की "बिन सत्संग विवेक न होई। ' सत्संग में ही विवके शक्ति जागृत होती है। सत्संग में जाने से चित्त की वृत्त्यों का शुद्धिकरण सहज ही शुरू हो जाता है। जिससे जीवन के लक्ष्य के प्रति जाग्रति आती है और उत्साह बनता है। सत्संग जीवन जीने की कलही जो हमें सिखाता है की मन का संतुलन खोये बिना जीवन की सभी परिस्थितियों का सामना सुगमता पुर्वक किया जा सकता है।
सच्चे संतजन विश्व के कल्याण के परम आधार हैं। उनकी वाणी से अमृत झरता है। उनके हृदय से आनंद का सतत प्रवाह बहता है। वे जो उपदेश करते हैं,वहीsअत्कर्म बन जाता है। उनका संग ही सत्संग है। जिस जगह वे सत्संग करते हैं वह स्थल पावन बन जाता है। जिस तरह भगवान् भास्कर पृथ्वी को ऊष्मा प्रदान करते हैं, उसी तरह संतजन भी अपने भीतरी खजाने में से ज्ञान रुपी अमृत देकर प्राणियों को सुख रूप उष्णता परत\दान करते हैं। वे खिले हुए पुष्प की भाँती हैं, जो सर्वत्र सुगंध ही बिखरते हैं।
सत्संग का एक मुख्या उद्देश्य दुराचरण का त्याग और सदाचरण का विकास है। स्वामी रामसुखदास जी का कहना है की अआप सत्संग करते हैं तो दुनिया आपसे अच्छे बर्ताव की आशा रखती है। सत्संगी का बर्ताव अच्छ न हो तो लोगो को धक्का लगता है। किसी को भी मेरी वजह से तकलीफ न हो- यह विचार पक्का हो जाए तो येही सत्संग की सार्थकता है।
भाव शुधि के लिए सत्संग सर्वोत्तम है। इस भाग दौड़ और संघर्षपूर्ण जीवन में सच्चे सत्संग का मिलना ही अपनेआप में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जो कभी निष्फल नही जाती। बस हमें करना इतना ही हा की संतो के समीप उनके सत्संग में बैठ कर म उनके सारगर्भित प्रवचन मन में, मश्तिशक में समा जाने दे। हृदय में समा जाने दे। ऐसे जैसे गुड में मीठास, फूल में खुशबु, और वायु में ओक्सिगें । इसी में सत्संग की सार्थकता है। तभी हमारी विवेकशीलता विकसित होगी, व्यतित्व परिमार्जित हगा जीवन सुरभित। बस संत सच्चे मिल जाए।
आए तेरे द्वारे पे हम झोलियाँ पसार के
रखियो हमारी लाज ये ही हम पुकारते
आए तेरे द्वारे पे ...........
जीवन की डोर बहुत कमजोर है
टूट न जाए राह में तूफां का ज़ोर है
दे दो सहारा मेरे पापों को भुला के
रखियो हमारी लाज ..........
परम हितकारी सदा सुखकारी
दाता मेरा है पूर्ण भंडारी
आए हम दर पर झोलियाँ फैला के
रखियो हमारी लाज ........
तेरे बिना दाता मेरा कोई न जहाँ में
अपना बना कर मुझे करदो एहसान ये
करे फरियाद आनंद दीदार दे
रखियो हमारी लाज....
तर्ज़- चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है

इतनी किसी की ज़िन्दगी गम से भरी न हो
वो मौत मांगता हो मगर मौत मिली न हो
खंजर के बदले फूल लिए आज वो मिले
डरते हैं कहीं चाल ये उसकी नयी न हो

बच्चों की मुफलिसी में ज़हर माँ ने दे दिया
अखबार में अब ऐसी ख़बर फ़िर छपी न हो
ऐसी शमा जलने का क्या फायदा
जो जल रही हो और कोई रौशनी न हो
हर पल ये सोच-सोच के नेकी किया करते
जो साँस ले रहा हूँ कही आखिरी न हो
क्यों ज़िन्दगी को गर्क किए हो जूनून में
रखो जूनून उतना कि वो ख़ुदकुशी न हो
इस बार जब भी धरती पे आना कृष्णा
दो चेक ले के आना भले हाथ में बांसुरी न हो
आंखों में आंसू
दिल में आहें
कांपती है रूह
सर्द हैं निगाहें
किसको जा के दर्द सुनाएं
रुष्ट हुई सब अभिव्यन्जनाएं
रिश्तों के उपवन
सूखते जाएँ
फूल प्यार के
खिलने न पायें
कैसे जीवन को महकाएं
धूमिल हुई सब अभिलाषाएं
मन की व्यथाएं
बढती ही जाएँ
पत्थर दिल लोग
पिघल न पायें
किसको अपना मीत बनाएं
शून्य हुई सब संवेदनाएं
आधुनिक धर्मगुरु सर्वसुविधा संपन्न हैं। शिष्यों की अच्छी खासी फौज उनके पास होती है जो उनकी भौतिक पारिवारिक आवश्यकताओं का ध्यान रखती है। आधुनिक गुरु संन्यास के नाम पर अपनी पारिवारिक अवं सामज्कि दाइत्वों से लगभग मुक्त से हो जाते हैं। उन्हें फ़िर घर परिवार की फिक्र नही करनी पड़ती। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं यथा रोटी, कपड़ा, मकान की फिक्र नही रहती। सब कुछ शिष्यों द्वारा प्रबंध कर लिया जाता है। ऐसे मैं उपदेश देना कितना सहज है इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. काफ़ी समय पहेले एक विज्ञापन की पक्तियां कुछ यूँ थी- लाइफ में हो आराम तो आइडिअज़ आते हैं। क्या ऐसा नही की वे इसीलिए उपदेश देने में कुशल और पारंगत होते हैं।

देखने में तो लगता है की ये उपदेशक गेरुए या सफ़ेद वस्त्रों में नज़र आते हैं, किंतु उन वस्त्रों की चमक आंखों को चुंधिया देती है। आश्राम के नाम पर अकूत ज़मीन जायदाद के मालिक होते हैं। उनके आश्रम आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित होते हैं। उम्दा बेशकीमती फर्नीचर वातानुकूलन के उपकरण, लम्बी चमचमाती गाडियाँ सब कुछ होता है। इतना ही नही आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के नाम पर बड़े बड़े उद्योग स्थापित कर लेते हैं और खूब कमाते हैं जिससे दूर रहने का उपदेश देते हैं। आश्रम में महँगी से महँगी दवाइयाँ बेचीं जाती हैं। धर्म के नाम पर अच्छा खासा व्यापार फैला हुआ है। उनके प्रवचनों की सीडीयाँ कस्सेट्स किताबें मालाएं तस्वीरें तावीज़ और औषधियों का व्यापार उफान पर है। इससे जन साधारण को कितना और कैसे लाभ हो रहा है, अज्ञात सा ही है। किंतु उनका ख़ुद का फायदा ही फायदा है। लगातार कथाएँ करते करते अधिकतर कथावाचक थके थके और बेनूरी से लगते हिं।

धर्म के नाम पर प्रचुर धन खर्च कर दिया जाता है। इनका , अपवादस्वरूपकुछेक को छोड़ कर , सामाजिक हित की दिशा में यथा शिक्षा आदि के प्रचार प्रसार में योगदान लगभग शून्य है। व्यक्ति के जीवन में रोग, शोक, दुःख दर्द इनके धार्मिक उपदेशों से नही मिट रहे। और न ही जीवन के भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त कराने में ये पूर्णतया समर्थ हो पा रहे हैं। क्या उपदेशों से गरीबी, अलगाववाद आतंकवाद जातिवाद भ्रष्टाचार दूर हो सके हैं? कन्या भ्रूण हत्याएं बदस्तूर जारी हैं। धार्मिक उपदेश लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवाने में असमर्थ हैं।

मन्दिर आस्था के केन्द्र न होकर व्यापार के केन्द्र बनते जा रहे हैं। मंदिरों के आड़ में अतिक्रमण सहज ही हो जाते हैं । लाखों करोड़ों रुपये खर्च करके मन्दिर आदि तो बनवा दिए जाते है, पर सूदूर गाँवों में शिक्षा मन्दिर नही बन पाते। आए दिन पदयात्राएं होती रहती हैं, पर इनसे लोगों में गुणात्मक eपरिवर्तन होता नही दिखाई देता। पदयात्राओं से व्यक्ति में धैर्य , संयम आदि गुणों का विकास या आविर्भाव sहोना चाहिए ।

व्यावसायिक कथावाचक येन केन प्रकरेणलोगो को भावनाओं के सागर में बहा ले जाते हैं और उन्हें विशवास दिलाने में सफल हो जाते हैं की कथा मात्र सुनने से उनका मोक्ष हो जाएगा। लोग जीते जी तो शांत और सुखी नही महसूस करते हैं किंतु मोक्ष की लालसा में वे कुछ भी कर ने को तैयार हो जाते हैं। धर्मोपदेशक देश की सेवा कैसे कर रहे हैं , समझ से बाहर है। उनकी कथाओं से लोगो पर कैसे सकारात्मक प्रभाव पड़ता है , विचारणीय विषय है। देश को अच्छे नागरिक नही मिल रहे हैं, सचरित्र और संस्कारित लोग खोजेने से भी नही मिलते हैं। आज समय की मांग है की मानव को मानव के प्रति स्नेहपूर्ण बनाना, जातिवाद के दंश को दूर करना, देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और गरीबी दूर करना जो धार्मिक उपदेशों से सम्भव नही हो पा रहे हैं। के और उन्हें यह विशवास दिलाने में सफल हो जाते हैं
आगत आया नही
आए के न आए
पल की ख़बर नही
तो भी जीवन की रहगुज़र में
मखमली कालीन सा बिछा रहता है
नर्म सा एहसास आशाओं का
दिल को पुरसुकूं तो करता है
पर
पांवो के नीचे की ज़मीन भी छीन लेता है
की जब इंसान यथार्थ भूल जाता है और
कल्पनाओं में ही जीने लगता है
विगत भी हुआ गतिहीन
लाख यतन करे कोई
लौटा सकता नही
फ़िर भी जीवन की रहगुज़र में
कभी जुगनुओं सा चमकता है
तो कभी ठूंठ सा खडा रहता है
था कभी सरसब्ज़ और बुलंद कभी
नशा बुलंदी का कभी उतर्तता नही
मकडी के जले सा उलझा देता है
जीने देता नही,
जो है उसमे त्रिप्ती होती नही
अभाव सदा खटकता रहता है।
इंसा या तो उलझा विगत में
या आगत का रास्ता देखा करता है
आगत विगत में अटका भटका
आज का आनंद भी खो देता है.

तुमने सूली पे लटके जिसे देखा होगा,
वक़्त आएगा वही शख्श मसीहा होगा.
ख्वाब देखा या कि सेहरा में बसना होगा,
क्या खबर थी यही ख्वाब तो साया होगा.
मै फिजाओं में बिखर जाउंगी खुशबू बनकर,
रंग होगा न बदन होगा न चेहरा होगा.
देश के प्रत्येक शहर में प्रतिदिन कहीं न कहीं, कोई न कोई, धार्मिक सभा हो रही होती है। प्रत्येक धर्मोपदेशक के पास हजारों हजारों श्रोताओं की भीड़ दिखाई देती है। धर्मोपदेशक आकर्षक हावभाव से धार्मिक कथाएँ श्रवण करा रहे होते हैं। श्रोता भी भाव विभोर होकर कथा का रसास्वादन करते प्रतीत होते हैं। कथाओं के दौरान लोग नाचते गाते हर्षित और प्रफुल्लित दिखाई देते हैं।
यह एक आश्चर्या जनक तथ्य है की देश में हो रही सैकडों धर्मसभाओं में आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा उद्बोधित प्रवचनों को दिन रात हजारों लोग सुनते हैं, फ़िर भी असहिष्णुता भ्रष्टाचारी , कालाबाजारी , बेईमानी , गरीबी, अलगाववाद, जातिवाद आदि हर दशहरे में रावण के कद की तरह बढते ही जा रही हैं। सहनशीलता का अभाव है। यह एक विचारणीय विषय है।
देश में जिस अनुपात में धर्मोन्माद देखने को मिलता है उसी अनुपात में अराजकता बढती जा रही है। हर एक धर्म सभाओं में हजारों हजारों की संख्या में लोगो को देखकर यह विचार आना स्वाभाविक है की जब इतने सारे धार्मिक लोग हैं तो देश में नैतिक ता का ज़ोर होना चाहिए, लोगों के व्यक्तित्व और कृतित्व में निखार आना चाहिए। पर क्या ऐसा है? पश्चिमी देशों में इस कदर धार्मिक सभाओं के दौर होते नही देखे जाते हैं। धर्मिक्क्ता का इतना उन्माद भी नही देखा जाता। फ़िर भी वहाँ पर लोग अपने अपने कामों के प्रति ईमानदार और जीवन के मूल्यों के प्रति सचेत देखे जाते हैं। वहाँ के लोग संतुष्ट दिखाई देते हैं। किंतु हमारे देश में धार्मिकता का प्रचुर ज्ञान प्रकाश होने पर भी क्रोध , अधैर्य असहनशीलता बढते ही जा रही हैं। अधिकतर कथा रसिक जो अपने वर्तमान से तो असंतुष्ट दिखाई देते हैं, अगले जनम जो अनिश्चित है, के लिए लालायित रहते हैं। इस जनम की , वर्तमान की तो क़द्र नही किंतु अगला जनम जो अज्ञात है को सुधारने के लिए चिंतित दिखाई देते हैं।
यह भी अध्ययन का एक रोचक विषय हो सकता है की "कथाएँ सुनने से लोगों को व्यक्तिगत या पारिवारिक रूप से क्या प्राप्ति होती है या समाज को वे इस तरह से क्या योगदान देते हैं? परिवार में बुजुर्गों की अवहेलना , उपेक्षा प्रताड़ना ईर्ष्या पाखण्ड में कहीं कोई कमी नही आती दिखाई देती। अनैतिकता , विखंडन आदि बढते जा रहें हैं। बहूएँ दहेज़ के नाम से प्रताडित हो रही हैं। कन्या भ्रूण हत्याएं बदस्तूर जारी हैं। लोग अपने ही प्रति अनुशासित और जवाबदेह नही हैं। अपने काम के प्रति भी इमानदार नहीं हैं। धर्मोपदेशकों की कथाओं से लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता नज़र नही आ रहा। और जो थोडा बहुत दिखाई भी देता है, वो क्षणिक ही होता है। जब तक चपड़ी आग के पास होती है, वह नरम रहती है। आग से दूर होने पर फ़िर सख्त या कठोर हो जाती है।
धर्म के नाम पर दंगा फसाद बढता ही जा रहा है। सम्प्रदाय बढ रहे हैं, उनका वर्चस्व बढता ही जा रहा है।
धार्मिक उपदेशों से लोगों की समझ विकसित होती दिखाई नही पड़ रही। आज समय की मांग है की मानव मनाव के प्रति स्नेहपूर्ण नही दिखाई देता।
कुछ लोगों का यह भी मानना है की 'धर्म सभाएं अत्तेंद करने के बाद लोग नकारत्मक काम निसंकोच हो कर करते हैं। शायद वे सोचते हैं की एक हाथ से पाप तो दूसरे से पुण्य अर्जित करके वे जीवन में संतुलन कायम रख सकते हैं। यह उनकी अपनी सोच का एक तरीका हो सकता है।
धर्म गुरु तो खिले हुए पुष्प की तरह होते हैं, जो सर्वत्र लगातार सुगंध ही बिखेरते हैं। वे तो समाज को सही दिशा और दशा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। किंतु लोग ही उनके वचनों को हृदयंगम नही करते।, बस सुनना मात्र ही पुण्य समझते हैं। इसीलिए उनका जीवन फूल की तरह नही महकता । वचनों को सुनकर लोग अगर उस पर चिंतन मनन करे तो अच्छाई की सौंधी सौंधी महक से देश सुरभित हो जाएगा।

खुशनुमा लम्हों को कैसे ग्रहण लगा दिया तुमने
खिलखिलाती मसर्तों को कैसे तनहा बना दिया तुमने
तुम्हे तो सब कुछ था पता क्या कुछ हैं होने वाला
कुछ न बताया राज़ अपना बेनूर छोड़ दिया तुमने
हम तो लाये थे जलती मशालों की लौ ढूँढकर
कर डाला अँधेरा मशालों को बुझा दिया तुमने
मौसम की तरह रंग बदलते रहे तुम बार बार
जब भी जानना चाहा चेहरा लगा दिया तुमने
तुम्हारा हर गुनाह छुपा लिया दोस्त बनकर
कहें किससे, हमारी वफ़ा का अच्छा सिला दिया तुमने
सुनसान सड़क पर
वो अकेली खड़ी थी
खामोश और गुमसुम बड़ी थी
हर सू पहलू बदल रही थी
दिल में उसके छटपटाहट बड़ी थी
आंखों में उसके वीरानी घनी थी
घबराई सी एक और देख रही थी
और भय से थरथर काँप रही थी
मेने पूछा - क्या हुआ ?
वो बोली- अभी वो आने वाला है
और आते ही मुझे निगल जाएगा
मेने कहा - तुम चली क्यों नही जाती?
रुआंसी सी वह बोली
हमेशा कोशिश करती हूँ बचने की
पर
हमेशा वह मुझे अपनी ग्रिफ्त में ले लेता है
मेने पूछा कौन , वह बोली सूरज ........
उसकी आंच से मैं पिघल पिघल जाती हूँ.....
मैं मुस्कुराया --- वो अंधियारी काली रात थी।
जीवन पथ पर चलते चलते
पग तुम्हारे थक जायेंगे
जर्जर हो जायेगी काया
सहारे सभी व्यर्थ हो जायेंगे
धन सम्पति रिश्ते नाते
सब यहीं धरे रह जायेंगे
पद प्रतिष्ठा मान मर्यादा
कुछ भी काम न आयेंगे
जीवन फिसल चला हाथों से
जाल सिमट नही पायेंगे
चुकता जाता साँस खजाना
पल छीन फ़िर लौट न आयेंगे
ले नाम सहारा इश्वर का प्यारे
ये ही तो भव से पार लगायेंगे
जीवन पथ पर चलते चलते
पग तुम्हारे थक जायेंगे

जीवन पथ पर चलते चलते
पग तुम्हारे थक जायेंगे
बड़ी मुस्तैदी से, अनुशासित ......

वह रोज सुबह अपनी रक्ताभ

आभा लिए ड्यूटी पर बिना नागा आ जाता है

सबसे पहले लाल रंग से सभी दिशाओं को

संवार देता है, फ़िर

सोतों हुओंको जगा देता है

फूलों को खिला देता है

सोये हुए पक्षियों को भी

घोंसलों से उड़ा देता है,
दिन भर , अनवरत....
काम करने के बाद भी वह
कभी नही थकता,
मैंने पूछा - तुम्हारी ऊर्जा का राज?
तुम्हारी शक्ति का राज क्या है?
तुम ऊबते नही हो रोज एक ही काम को करते करते?
उसने खिलखिला कर कहा -
काम करने से जो ऊब गया ,
निश्चित जानो वो डूब गया,
इससे से पहले मै कुछ और पूछता!
वह सुनहरी चूनर वाली के साथ
इतराते हुए पर्वतों के पीछे कहीं
शोख्पूर्ण अदाओं से नज़रों से ओझल हो गया
वह सूरज था ...............




प्यार एक अजय किंतु सुकोमल भावना है जो जन जन में व्यापक रूप से रची बसी है। पशु पक्षियों में भी प्यार की भावना हिलोरें लेती है। प्यार की भावना को रिश्तों और संबंधों के अनुसार परिलक्षित किया जा सकता है। हम कह सकते हैं की प्यारसे सब कुछ सुलझाया जा सकता है किंतु मेरी दृष्टि में स्वार्थ सिद्धि के लिए किया गया प्यार प्यार नही है। क्योंकि किसी प्रयोजन सिद्धि या स्वार्थ सिद्धि के लिए प्यार करना अभिशाप बन जाता है। वो फ़िर प्यार नही चालाकी है।

प्यार तो हमेशा निस्वार्थ और निश्छल होता है।

माँ बाप का प्यार अद्वित्य और अतुलनीय होता है। माँ बाप का प्यार उनके त्याग के रूप में होता है। बालक को कब क्या चाहिए, जो चाहिए , जैसा चाहिए , माँ में सब कुछ वैसा करने की सामर्थ्य और शक्ति पैदा हो जाती है...प्यार की खातिर।

एक बच्चे के प्रति प्यार उसकी सुरक्षा और उसके पालन पोषण के रूप में प्रर्दशित होता है। अपनी बाहें फैला कर बच्चे को अपने पास बुलाना, अपने सीने से लगाना, अपनी बाहों में झुलाना -- प्यार का अवर्णीयऔर आनंदप्रद रूप है।

प्यार को और गहरे से यूँ समझें--बच्चा अगर शैतान होता है तो भी माँ के दिल में उसके प्रति प्यार ही रहता है। ऊपर से भले ही उसे डांटे डपटे या थप्पड़ भी मार दे। तो भी उसके भीतर के प्यार में कमी नही होती।

बच्चे के प्रति पिता का प्यार झलकता है - उसके लिए सुख सुविधाओं के साधन जुटाने में , उसकी शिक्षा दीक्षा , लालन पालन में । यद्यपि कई बार हमें लगता है की पिता की भावनाएं अपने बच्चों के प्रति ठंडी हैं, किन्तू दिल में तो उसके प्यार का सागर उमड़ रहा होता है। यह उसके प्यार का एक तरीका है। चूंकि वेह अपने को बच्चे की हर चीज के लिए उत्तरदायी मानता है, इसलिए वह कमजोर भावना का प्रदर्शन नही करता। किंतु भीतर प्यार से भरा हुआ होता है।

मित्र के प्रति हमारा प्यार प्रर्दशित होता है उसके प्रति मैत्रिपूरन भावना में। उसके साथ हँसी खुशी के पल छीन बांटना भी प्यार का ही एक रूप है। प्रतिकूल परिस्थितियों में हम अपने मित्र के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसका साथ देते हैं। तो यह भी हमारा उसके प्रति प्यार है।
हमारी जान पहचान तो बहुतों से होती है, पर क्या वहाँ प्यार होता है ? सच्चे मित्र तो एक दूसरे की भावनाओं की क़द्र करते हैं, एक दूसरे की कठिनायों को समझते हैं। एक दूसरे केप्रति विचारपूर्ण रहते हैं। और हर स्थिति में निष्ठा और वफादारी से रहते हैं। दुःख में साथ देना, सदा एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहना, ये सब प्यार के ही रूप तो हैं। सच्चा मित्र सदा आपके साथ, आपके लिए है। उसे कोई शिकवा नही - शिकायत नही।

फ़िर प्यार का एक रूप है अपने जीवन साथी के साथ। अपने जीवन साथी के साथ प्यार का गहरा रिश्ता होता है। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक प्यार। यहाँ तक की दूर होने पर भी दिल से नज़दीक होते हैं... इस्सिलिये दो जिस्म एक जान होते हैं।

पति पत्नी की एक दूसरे के प्रति प्यार की सुकोमल भावनाएं इतनी प्रगाढ़ होती हैं की कालांतर में उनकी शक्लें भी मिलने लगती हैं। एक दूसरे को समझाने वाले, एक दूसरे के प्रति सहिष्णु, एक दूसरे की कोमल देखभाल, एक दूसरे की ज़रूरतों को समझना और पूरा करना। क्षमाशीलता और सहनशीलता। बीमारी में, स्वस्थ्य में, सभी दशाओं में एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण रहना भी प्यार के ही विभिन्न रूप हैं।

पशुओं को हम प्यार करें तो परिणामस्वरूप वे भी प्यार प्रर्दशित करते हैं। प्रतेक जानवर का प्यार उसकी आँखों से झलकता है। वेसे अपना प्यार प्रर्दशित करने के उनके अपने छोटे छोटे तरीके हैं-- अपनी पूँछ हिलाना, पाँव चाटना, ज़मीन पर लोटपोट हो जाना, हलकी हलकी आवाजे निकालनाआदि।

सबसे बढकर प्यार हम अपने परमात्मा से करते हैं। वह हम पर करूणा और प्यार की फुहार बरसाता है। हमारे प्रति सदैव क्षमाशील बना रहता है। हम अपने कृत्यों से, हाथों से, भावपूर्ण मुद्राओं से, शब्दों से, प्रार्थना से अपना प्यार परमात्मा के प्रति व्यक्त करते हैं। जब हम परमात्मा को हृदय से प्यार करते हैं तो बदले में हमें भी उसका प्यार मिलता है, तो खुशियाँ ले के आता है।

प्यारा की महिमा अपरम्पार है।

अब किसी दैरो-हरम की बात मत कर
किसी से रहमो-करम की बात मत कर
प्यार कर उससे जो दिल का मोम हो
संगमरमर के सनम की बात मत कर
उलझने ही उलझने हैं ज़िन्दगी में
जुल्फ के अब पेंचो-ख़म की बात मत कर
रक्स करती है जहाँ आय्याशियाँ
उस सियासत के हरम की बात मत कर
जिबाह तो पेशा है उसका यूँ
कस्साब से रहमो करम की बात मत कर

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रोये वो इस कदर मेरी लाश से लिपटकर,
अगर इस बात का पता होता,
तो कब के मर गए होते....



आत्मविश्वास, विश्वास और तेज विश्वास क्या हैं? इन्हें जानने से पहले मन के बारे में कुछ आम बातें और एक खास बात जानें। आम बात यह है कि “हर इंसान के अंदर मन है और हर अविश्वासी (गुलाम) इस मन से परेशान है तथा हर विश्वासी इस मन का मालिक है।” मन कैसा है? मन एक आम जैसा है, जिस तरह कुछ आमों में कुछ हिस्सा सड़ा हुआ होता है, उसी तरह मन का भी कुछ हिस्सा सड़ा हुआ होता है। उसे ‘तोलू मन’ (कॉन्ट्रास्ट मन) कहा जाता है। यही तोलू मन इंसान के अंदर परेशानी का कारण है। आम बात यह है कि जब आम पक जाता है तब वह पेड़ से गिर जाता है। लेकिन यह मन कभी पकता (गिरता) नहीं। इस बिना पके मन को गिराने के लिए बहुत सारी विधियां हैं। जप-तप, तंत्र-मंत्र, कर्म-धर्म, भक्ति, ज्ञान-ध्यान इत्यादि।

इन सब विधियों का प्रचलन इसी तोलू मन को गिराने के लिए किया गया है। यह विधियां मन में तेज विश्वास, तेज प्रेम, तेज स्वीकार भाव जगाने के लिए बनाई गई हैं। लेकिन आज उन विधियों का उपयोग सिर्फ कर्मकाण्ड के रूप में किया जा रहा है। आम का कुछ भाग सड़ जाए तो लोग उसे काटकर फेंक देते हैं। किंतु मन के सड़े हिस्से यानी ‘तोलू मन’ को हम काटकर फेंक नहीं सकते। इस मन में आत्मविश्वास की दवा डालकर इसे स्वस्थ करना पड़ता हैं।

सभी जानते हैं कि किसी नकारात्मक घटना के बाद मन में विचार आने शुरू हो जाते हैं तो रुकने का नाम ही नहीं लेते हैं। जब तक हमें विचारों को रोकने का प्रशिक्षण नहीं मिलता, जब तक समझ, श्रवण, भक्ति की प्यास नहीं जगती, जब तक हमें यह पता नहीं चलता कि हर कर्म सेवा है, तब तक विचार रुकते ही नहीं और मन हमें बहुत परेशान करता रहता है। जब तक मन में विश्वास नहीं जगता तब तक हमें कामयाबी नहीं मिलती। विश्वास की शक्ति पाकर मन कर्मवीर बन जाता है। मन विश्वास में नहाकर दोष मुक्त हो जाता है। विश्वास मन के लिए गंगा नदी का काम करता है, जिससे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। पवित्र मन, प्रेम और विश्वास से इंसान सम्पूर्ण जग जीत सकता है।

विशवास का विकास समय, ज्ञान और प्रयोगों द्वारा होता है। जिस बात पर आप विश्वास नहीं रखते थे, उसी बात पर कुछ समय और समझ मिलने के बाद आप यकीन करने लगते हैं। विश्वास का विकास उच्चतम अवस्था तक होना चाहिए तभी हम विश्वास की चमत्कारिक ताकत जान पाएंगे। आत्मविश्वास रखने वाले इंसान जल्दी विकास करते हैं। विकास के साथ विश्वास का भी विकास होता है और इस तरह विश्वास बढ़ने से आपका विकास और ज्यादा बढ़ जाता है।

विश्वास से विकास और विकास से विश्वास का विकास होता है। यह हुई खास बात की शुरुआत। अब जानें खास बात। अंतर्ज्ञान व विश्वास: इंसान अपने जीवन में सम्पूर्ण संतुष्टि तब महसूस करता है, जब उसके अंदर छिपे हुए दो गुण प्रकट होते हैं। जब तक यह गुण प्रकट नहीं होते तब तक इंसान अपने अंदर खालीपन और कमी महसूस करता है। जिस तरह कोई फिल्म जब तक रिलीज नहीं होती तब तक उस फिल्म के कलाकार और निर्देशक संतुष्टि महसूस नहीं करते, उसी तरह हमारे अंदर छिपे यह दो गुण जब तक पूरी तरह से प्रकट नहीं होते तब तक हम अपने आपको अधूरा महसूस करते हैं।

ये दो गुण कौन से हैं?
ये दो गुण हैं - विश्वास और प्रेम।विश्वास अगर प्रकट न हो तो हमारे जीवन में कोई खुशी नहीं आती। प्रेम अगर प्रकट न हो तो हमारे हृदय में कोई सुखद भावना नहीं रहती। विश्वास से प्रेम जगाया जा सकता है, प्रेम से विश्वास पाया जा सकता है। दोनों एक-दूसरे की मदद करते हैं। ईश्वर पर विश्वास, भक्ति को जगाने का काम आता है। ईश्वर की भक्ति अटूट विश्वास पैदा करने में आपकी मदद करती है। विश्व में बहुत से चमत्कार होते देखे गए हैं। लोग विशेष स्थानों पर जाकर बीमारियों से मुक्ति प्राप्त करके लौटते हैं।

वह स्थान कोई पहाड़ हो, मंदिर हो, चर्च हो, दरगाह हो, गुरुद्वारा हो या जंगल हो लेकिन विश्वास प्रकट करने में वह स्थान मदद करता है। विश्वास के कारण ही इन स्थानों पर लोगों की मन्नतें पूरी होती हैं। विश्वास विश्व की सबसे शक्तिशाली तरंग है। इस तरंग में तरंगित होकर इंसान का शरीर खुल-खिल जाता है। इस तरंग में भय और चिंता की नकारात्मक तरंगें नष्ट हो जाती हैं। जीसस ने अपने जीवन काल में जितने भी चमत्कार किए, उसके पीछे विश्वास की शक्ति काम कर रही थी। जीसस ने लाइलाज लोगों से यही कहा कि “यदि तुम ठीक होने का विश्वास रखते हो तो यह विश्वास तुम्हें ठीक कर देगा।

विश्वास में यदि इतनी शक्ति है कि हम रोग मुक्त हो सकते हैं, जो चाहें वह पा सकते हैं तो हमें यह शक्ति प्रकट करने की कला सीखनी होगी। इस शक्ति से आप दुनिया की सभी चीजें, सफलताएं प्राप्त करेंगे ही, साथ में तेज प्रेम प्रकट करके अपना बंद हृदय ईश्वर के लिए खोल पाएंगे। ऐसे में आपको किसी और चीज की आवश्यकता नहीं होगी। आपका जीवन आनंद की अभिव्यक्ति में बहकर महाजीवन बनेगा।

विश्वास की यह शक्ति अप्रकट रखकर आप बहुत सीमित व दुःखी जीवन जीते हैं। बिना विश्वास के जीवन अनुमानों व शंकाओं से भरा रहता है। नकारात्मक शंकाओं से विश्वास टूटने लगता है और उस विश्वास का स्थान डर ले लेता है। डरा हुआ इंसान सिकुड़कर जीता है। आत्मविश्वास से भरा हुआ इंसान खुलकर जीता है और खुलकर जवाब देता है। अविश्वासी इंसान हमेशा देने से घबराता है और अभाव की स्थिति में जीता है। वह नफरत और द्वेष का तुरंत शिकार हो जाता है। इसलिए अपने आप में विश्वास की शक्ति जगाएं और सफलता की पहली नींव डालें।

जोश१८ से साभार

जब से दिल लगाया है तुमसे
सब कुछ सहने की आदत हो गई है
इंतज़ार करते है हम तुम्हारा देर तक
तुमको न आने की आदत हो गई है
बात- बात पे मुस्कुराते थे हम
अब तो रोने की आदत हो गई है
कभी तलब करते थे तुम्हे हम
अब तो बेरुखी सहने की आदत हो गई है
जब से सोचना शुरू किया है तुमको
सारी- सारी रात जागने की आदत हो गई है
अब तो चाहे छोड़ भी दो हमें
तुम बिन रहने की आदत हो गई है
जिसे भी चाहा हमने वो छोड़ कर चला गया
अब तो खोने की आदत सी हो गई है
जब से तुम गए हो हमें छोड़ कर
तब से चुप रहने की आदत सी हो गई है
तुमसे न कोई शिकवा न शिकायत है हमें
बस ख़ुद से शिकायत करने की आदत हो गई है
मालूम है कि हमारी किस्मत में तुम नही
बस ख़्वाबों में खोये रहने की आदत हो गई है
तुम जहाँ भी रहो बस खुश रहो
यह दुआओं में मांगने की आदत हो गई है
जीवन की चुनौतियों का सामना करती हुई मानवीय चेतना जब थक सी जाती है अथवा परास्त होकर चुकी चुकी सी महसूस करती है.... तब प्रकृति का आँचल या मनुष्य का स्नेहपूर्ण सौहाद्र उसमे नई आशा की किरण जगा देता है। उसे पुनः आश्वस्त करता है, आगे के चरणों की ओर बढने के लिए आवाहन करता है। प्रकृति अथवा मनुष्य के प्राणदायी स्पर्श का अनुभव हम सभी करते हैं, उसकी चाह भी हम सभी के मनो में रहती है, पर उसे समझनेकी कोशिश शायद हममें कुछ विरले ही करते हैं। और उसे समझते हुए उसकी अव्यक्त अपेक्षाओं के प्रति अपने को पूणर्त मुक्त करने की कोशिश संम्भ्वत कोई अत्यधिक तरल संवेदनशीलता से य्युक्त व्यक्ति ही कर पाता है।

सौन्दर्यानुभूति और उस अनुभूति की अभिव्यंजना सदा से ही मानव जीवन की एक विशिष्ट प्रकृति रही है। व्यक्तिगत इच्छाओं से ऊपर उठकर ही सौन्दर्य की प्रतीति होती है। यह सौन्दर्य के स्वरुप और सार को अधिक सच्चाई से पेश करता है। यदि हम गौर से देखें तो पायेंगे की सामान्य ही नही अपितु न्यूनतम संवेदनशीलता रखनेवाले व्यक्ति में भी वस्तुओं को सजा कर, करीने से रखने की प्रवृति दिखाई देती है। यही बीज रूप में सौन्दर्यात्मक अभिरुचि है।

यह जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रवृति है जो हमारे सम्पूर्ण जीवन को इस प्रकार रंजित करती है की वह अनायास ही सार्थक होकर निखर उठता है। इसी के माध्यम से हम जीवन के विविध पक्षों के मूल्यों को निर्धारित करते हैं। सौन्दर्य विलासिता का पर्याय नही है। सौन्दर्य का आधार तो वस्तुत मानव की अपनी आत्मा है, मानव ख़ुद है। 'कांट' का मानना है की सौन्दर्य के प्रत्क्ष्य में आत्मनिष्ठ तत्वों का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रयाप्त मात्रा में सौन्दर्य बोध तथा उसके सर्जन के सामर्थ्य न होने पर भी व्यक्ति सौन्दर्य के स्वरुप पर विचार कर सकता है।

सौन्दर्य बोध तो मानव हृदय की अतार्किक प्रतिक्रियाओं से होता है। हृदय की सहज अतार्किक प्रतिक्रियाओं, सहज संवेदन शीलता की भावात्मक, अभावात्मक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से यह जान लेता है की अमुक वस्तु सुंदर है या नही। सर्जनात्मक प्रतिक्रयाएं स्वांत सुखाये और साध्य होती हैं। इस कारण वे विशिष्ट, श्रेष्ठ और सुकून देने वाली होती है। किंतु मानवीय सर्जना की तुलना में प्रकृति की सर्जनात्मक क्षमता कहीं अधिक विशाल होती है। और जहाँ तक उससे अभिभूत होने का प्रशन है, हम में से प्राय सभी ने यह अनुभव किया होगा की जब कभी भी हम उत्तेजित स्थिति में आश्वस्त होने के लिए उसकी ओर उन्मुख होते हैं, तो हमें नितांत सहजता के साथ अपना खोया हुआ सुकून पुनः प्राप्त हो जाता है। और उसका मंगलकारी प्रभाव हम पर पड़ता है।

सौन्दर्य का संबंध मानवीय व्यक्तित्व की उन गहराइयों से है, जिनका हम सामान्यत स्पर्श नही करते, इसलिए जब जो भी अभिव्यंजना उन गहराइयों को स्पर्श करती है, हमें एक गहरा आत्मिक संतोष प्रदान करती है। जो अंतत आह्लादकारी है।

व्यक्ति के जीवन का प्रमुख उद्देश्य यह है की वह विश्व तथा अपने व्यक्तित्व में अंतर्भूत उस आधारभूत सत्यको प्राप्त करे । उसमे स्थाई रूप से अवस्थित हो जाए । तभी वह जीवन के शाश्वत सौन्दर्य का सही अर्थों में प्रत्क्ष्य कर सकेगा। और मनसा वाचा कर्मणा अपने जीवन और व्यवाहर में प्रस्थापित कर सकेगा। यही नही, तभी वह उस सौन्दर्य के जिवंत केन्द्र के रूप में अपने को रूपांतरित करने में सक्षम हो सकेगा।
डियर मित्रों सौन्दर्य की इस विवेचन के बारे में आप क्या सोचते हैं?

कट रही है आजकल कुछ ऐसी दुश्वारी के साथ
यार भी मिलते हैं अब तो अजब अय्यारी के साथ
झूठ क्या है और सच क्या है तय नही कर पाये हम
उम्र सारी कट गई गफलत की बीमारी के साथ
मुझको सीने से लगा जो मेरी जेब काट ली उसने
जब मिला वो शख्स तो ऐसी ही दिलदारी के साथ
एक घर की आग थी और सारी बस्ती जल गई
मैं मना करता रहा मत खेल चिंगारी के साथ
जंग हारी है तो हारी, हौसले जांबाज़ हैं
फ़िर पलट कर आयेंगे हम पूरी तैयारी के साथ
नभ्त्वाकर्षण-नभ का भी अपना एक आकर्षण है


जो थामे रहता है सूरज, चाँद सितारों को


गुरुत्वाकर्षण- धरा का भी अपना एक आकर्षण है


जो थामे रहता है धरा के समस्त प्राणों को


सागर भी अपने आगोश में ले लेता है,


भटकने नही देता चंचल नदियों को


कांटे भी तो बन जाते हैं निगहबान


घायल नही होने देते मासूम कलिओं को


पर्वत भी आलिंगन करते पुर्वाईयों और घटाओं को


वो भी हर्षित हो बरसा देती अमृत की धाराओं को


वन उपवन भी यहाँ देते, हैं सहारा निराश्रित बेजुबानों को

पनाह, पोषण, आश्रय देते पशुओं

और परिंदों को

नही छीने अधिकार किसी का, प्रकृति का ये प्यार अनोखा,

जीने का देती है अवसर हर एक को

बस इन्सां ही इन्सां का बैरी बन तोड़ रहा मासूम दिलों को

प्रकृति से कुछ सबक न लेता, जला रहा आशियानों को


मोहब्बत में आज़माइश नही की जाती
इसे निभाने की फरमाइश नही की जाती
प्यार में आते हैं कदम कदम पे सख्त मुकाम
दिल के ज़ख्मों की तो नुमाइश नही की जाती।
हिज्र में जो मिलने लगे वसल का लुत्फ़
तो फ़िर मिलने की ख्वाहिश नही की जाती
अगर न मिलना ही हो वक्त का तकाज़ा
तो फ़िर मिलने की जिद नही की जाती
खुशनसीबी से जो मिल बैठे दो दिल
तो ज़माने में उसकी जैबेइश नही की जाती
जिन को हो मिलना और वो मिल न पाएं
दिल से कभी भी वो हसरत-ओ-यास नही जाती
प्यार तो हैं मुक़द्दरों का खेल
जो न मिल सके प्यार तो गुजारिश नही की जाती।
घायल हुआ चाँद रात
चाँदनी पीली ज़र्द हुई
ओह!ये कैसी हवा चली
बगिया सारी उजड़ गई
पलभर में ये कैसा भंवर उठा
ख्वाबों की दुनिया बिखर गई
गाने को थी गीत प्यार का
वीणा की तारें टूट गई
देखती रही राह सजन की
आए ना वो, हाय!
ये कैसी अभागी रात हुई

मेरे करीब आओ बहुत उदास हूँ मैं,
बस आज टूट के छाओ बहुत उदास हूँ मैं।
किसी भी झूठे दिलासे से दिल को बहलाओ,
कोई कहानी नई सुनाओ बहुत उदास हूँ मैं।
अँधेरी रात है कुछ नज़र नही आ रहा,
सितारे तोड़कर लाओ बहुत उदास हूँ मैं।
सुना है प्रेम नगर में खुशी भी मिलती है,
मुझे यकीन दिलाओ बहुत उदास हूँ मैं।
यह शाम यूँ ही गुज़र जायेगी दबे पाँव,
वफ़ा के गीत गाओ बहुत उदास हूँ मैं।

कागजों में ही खोजता रहा शुभ महूरत जीवन भर,
अन्तश्चेतना की मानव को कभी न आई ख़बर,
पंडित पुरोहितों से भी अपना भविष्य बंचवाया ,
जीवन में फ़िर भी कभी शुभ अवसर नही आया,
शुभ घड़ी शुभ अवसर की चाह ने मानव को पंगु बनाया
अपने पर तो मानव भरोसा कर ही न पाया,
शुभ मुहूर्त की बैसाखियों पर ही चित्त सदा अटकाया

कर्म योगी का कर्म करने में ही चित्त सदा हर्षाया,
तिथी दिन घड़ी महीने चोघडिये को उसने ठुकराया
शुभ घड़ी शुभ अवसर शुभ महूरत कागजों की है नैया
कब ये पार करा सकी मानव को बीच भंवर डुबोया ,

कर्म योगी की अन्तश्चेतना करती है सदा प्रेरणा
उठे जब शुभ भाव तत्काल अनुसरण कर लेना
दान करने का उठे संकल्प तो तुंरत कर देना
सेवा का हो भाव तो कल पर मत टाल देना
दर्दमंद का दर्द बांटने की इच्छा को थाम मत लेना
दवा किसी को दे न सको तो दुआ अवश्य कर देना
शुभ महूरत की इंतज़ार में कहीं शुभ को टाल मत देना,

जो उठे अशुभ भाव तो अवश्य टाल ही देना
क्रोध आए तो कल कर लेना, क्षमा तुंरत कर देना,
नफरत की चिंगारी को शोला मत बनने देना
रोक ही लेना गाली को क्षण भर मौन हो रहना
टाल ही देना इस अवसर को मीठे बैन बोल लेना
बन कर्म योगी तू आज में जी कर आनंद सदा ही लेना
शुभ घड़ी शुभ अवसर शुभ महूरत की फिक्र कभी न करना

इस तरह हवस के दौर में मुफलिसों का इन्तेहाँ है,
सर पे धूप नफरत की और पेड़ साए-बान हैं।
मेरे ख्वाब ले के आ गए मुझको उन कलाओं में जहाँ,
पाँव से जमीन भी दूर हैं सर से दूर आसमान है।
कल तलक मेरे वजूद की शोहरतें फिजाओं में रही,
आज मेरे ज़ख्मी हाथों में गफलतों की दास्ताँ है।
ज़ख्म तेरी बेवफाई का यूँ तो कब का भर गया मगर,
ज़ख्म की जगह पर आज भी हसरतों का इक निशाँ है।
वो भी लाश तकती रह गई अपने वारिसों की राह को,
जिसका कल के इक फसाद में दफ़न सारा खानदान है।
अपनी बेगुनाही की सनद इसलिए भी अब फिजूल है,
मेरे हक में कोई यहाँ मुद्दतों से बेजुबान है॥

दूर रह कर भी तुझ से मोहब्बत करना मुझे अच्छा लगा,
अब तू बता आख़िर तुझे यह वाक़या कैसा लगा।
इतने फासले में भी है तेरी कुर्बत के मज़े,
बुझे से मिलना तुझ को चाहना मुझे अच्छा लगा।
राख उड़ने लगी है मन में जलती बुझती यादों की,
शाम ढले तेरी याद के दीप जलना मुझे अच्छा लगा।
कैसे कहूँ तेरे बिन डसती है मुझको तन्हाई,
तेरी उल्फत तेरी फुरक़त में रत-जगा मुझे लगा लगा।
वो आँच थी हवा में कि कली तक सुलग गई,
ऐसे में तेरा घटा बन के बरसना मुझे अच्छा लगा।
फासले मिट न पायेंगे इन दूरियों के कभी,
तस्वीर में तेरा आके दिल को बहलाना मुझे अच्छा लगा।
छीन ली नींद जब आके तारे खयालों ने,
तेरी तस्वीर पे चुपके से होठो को रखना मुझे अच्छा लगा।

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उसने दूर रहने का मशवरा भी लिखा है,
साथ ही प्यार का वास्ता भी लिखा है।
उसने ये भी लिखा है मेरे घर न आना,
और साफ़ लफ्जों में रास्ता भी लिखा है।