आगत आया नही
आए के न आए
पल की ख़बर नही
तो भी जीवन की रहगुज़र में
मखमली कालीन सा बिछा रहता है
नर्म सा एहसास आशाओं का
दिल को पुरसुकूं तो करता है
पर
पांवो के नीचे की ज़मीन भी छीन लेता है
की जब इंसान यथार्थ भूल जाता है और
कल्पनाओं में ही जीने लगता है
विगत भी हुआ गतिहीन
लाख यतन करे कोई
लौटा सकता नही
फ़िर भी जीवन की रहगुज़र में
कभी जुगनुओं सा चमकता है
तो कभी ठूंठ सा खडा रहता है
था कभी सरसब्ज़ और बुलंद कभी
नशा बुलंदी का कभी उतर्तता नही
मकडी के जले सा उलझा देता है
जीने देता नही,
जो है उसमे त्रिप्ती होती नही
अभाव सदा खटकता रहता है।
इंसा या तो उलझा विगत में
या आगत का रास्ता देखा करता है
आगत विगत में अटका भटका
आज का आनंद भी खो देता है.

5 Comments:

निर्मला कपिला said...

बिल्कुअल सही कहा आपने बहुत सार्थक अभिव्यक्ति है आभार्

Udan Tashtari said...

इंसा या तो उलझा विगत में
या आगत का रास्ता देखा करता है
आगत विगत में अटका भटका
आज का आनंद भी खो देता है.

-सुन्दर!!

Publisher said...

आगत विगत में अटका भटका
आज का आनंद भी खो देता है.


अच्छा ताना बाना बुना है।

गांवों में जाएं, तो आपकी कविता के उलट जीवन है, विचार है, सोच है। शहर वालों के लिए कविता सार्थक है। कहीं कहीं कसावट की कमी झलकती है।

दिगम्बर नासवा said...

सच और सार्थक अभिव्यक्ति

M VERMA said...

आगत विगत में अटका भटका
आज का आनंद भी खो देता है.
shabdo ka aur bhavo ka achchha samavesh hai. jeevan ka satya bhi darshaneey hai.