सुनसान सड़क पर
वो अकेली खड़ी थी
खामोश और गुमसुम बड़ी थी
हर सू पहलू बदल रही थी
दिल में उसके छटपटाहट बड़ी थी
आंखों में उसके वीरानी घनी थी
घबराई सी एक और देख रही थी
और भय से थरथर काँप रही थी
मेने पूछा - क्या हुआ ?
वो बोली- अभी वो आने वाला है
और आते ही मुझे निगल जाएगा
मेने कहा - तुम चली क्यों नही जाती?
रुआंसी सी वह बोली
हमेशा कोशिश करती हूँ बचने की
पर
हमेशा वह मुझे अपनी ग्रिफ्त में ले लेता है
मेने पूछा कौन , वह बोली सूरज ........
उसकी आंच से मैं पिघल पिघल जाती हूँ.....
मैं मुस्कुराया --- वो अंधियारी काली रात थी।

4 Comments:

बसंत आर्य said...

कविता है या फिल्म.
चौकाना खूब भाया

अजय कुमार झा said...

बहुत सुन्दर जी..क्या कल्पना है..छायावाद की याद दिला दी आपने...अच्छा लगा..

ओम आर्य said...

दृश्य बडी तेजी से बदल रहे है .....कविता मे चित्रात्मकता है .......सुन्दर भाव

Archana Gangwar said...

wah ...bahut khoob