दूर रह कर भी तुझ से मोहब्बत करना मुझे अच्छा लगा,
अब तू बता आख़िर तुझे यह वाक़या कैसा लगा।
इतने फासले में भी है तेरी कुर्बत के मज़े,
बुझे से मिलना तुझ को चाहना मुझे अच्छा लगा।
राख उड़ने लगी है मन में जलती बुझती यादों की,
शाम ढले तेरी याद के दीप जलना मुझे अच्छा लगा।
कैसे कहूँ तेरे बिन डसती है मुझको तन्हाई,
तेरी उल्फत तेरी फुरक़त में रत-जगा मुझे लगा लगा।
वो आँच थी हवा में कि कली तक सुलग गई,
ऐसे में तेरा घटा बन के बरसना मुझे अच्छा लगा।
फासले मिट न पायेंगे इन दूरियों के कभी,
तस्वीर में तेरा आके दिल को बहलाना मुझे अच्छा लगा।
छीन ली नींद जब आके तारे खयालों ने,
तेरी तस्वीर पे चुपके से होठो को रखना मुझे अच्छा लगा।

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उसने दूर रहने का मशवरा भी लिखा है,
साथ ही प्यार का वास्ता भी लिखा है।
उसने ये भी लिखा है मेरे घर न आना,
और साफ़ लफ्जों में रास्ता भी लिखा है।

3 Comments:

Vinay said...

और हमें आपका यह सुखन भी अच्छा लगा! बहुत ख़ूब!

दिगम्बर नासवा said...

उसने दूर रहने का मशवरा भी लिखा है,
साथ ही प्यार का वास्ता भी लिखा है।
उसने ये भी लिखा है मेरे घर न आना,
और साफ़ लफ्जों में रास्ता भी लिखा है।

वाह ravi जी...............ये आदत ही तो हसीनों की लाजवाब है..........पता भी देते हैं और कहते हैं मत आना
दर्द

Archana Gangwar said...

kya baat hai ...
bahut khoob