जीवन की चुनौतियों का सामना करती हुई मानवीय चेतना जब थक सी जाती है अथवा परास्त होकर चुकी चुकी सी महसूस करती है.... तब प्रकृति का आँचल या मनुष्य का स्नेहपूर्ण सौहाद्र उसमे नई आशा की किरण जगा देता है। उसे पुनः आश्वस्त करता है, आगे के चरणों की ओर बढने के लिए आवाहन करता है। प्रकृति अथवा मनुष्य के प्राणदायी स्पर्श का अनुभव हम सभी करते हैं, उसकी चाह भी हम सभी के मनो में रहती है, पर उसे समझनेकी कोशिश शायद हममें कुछ विरले ही करते हैं। और उसे समझते हुए उसकी अव्यक्त अपेक्षाओं के प्रति अपने को पूणर्त मुक्त करने की कोशिश संम्भ्वत कोई अत्यधिक तरल संवेदनशीलता से य्युक्त व्यक्ति ही कर पाता है।

सौन्दर्यानुभूति और उस अनुभूति की अभिव्यंजना सदा से ही मानव जीवन की एक विशिष्ट प्रकृति रही है। व्यक्तिगत इच्छाओं से ऊपर उठकर ही सौन्दर्य की प्रतीति होती है। यह सौन्दर्य के स्वरुप और सार को अधिक सच्चाई से पेश करता है। यदि हम गौर से देखें तो पायेंगे की सामान्य ही नही अपितु न्यूनतम संवेदनशीलता रखनेवाले व्यक्ति में भी वस्तुओं को सजा कर, करीने से रखने की प्रवृति दिखाई देती है। यही बीज रूप में सौन्दर्यात्मक अभिरुचि है।

यह जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रवृति है जो हमारे सम्पूर्ण जीवन को इस प्रकार रंजित करती है की वह अनायास ही सार्थक होकर निखर उठता है। इसी के माध्यम से हम जीवन के विविध पक्षों के मूल्यों को निर्धारित करते हैं। सौन्दर्य विलासिता का पर्याय नही है। सौन्दर्य का आधार तो वस्तुत मानव की अपनी आत्मा है, मानव ख़ुद है। 'कांट' का मानना है की सौन्दर्य के प्रत्क्ष्य में आत्मनिष्ठ तत्वों का महत्वपूर्ण योगदान है। प्रयाप्त मात्रा में सौन्दर्य बोध तथा उसके सर्जन के सामर्थ्य न होने पर भी व्यक्ति सौन्दर्य के स्वरुप पर विचार कर सकता है।

सौन्दर्य बोध तो मानव हृदय की अतार्किक प्रतिक्रियाओं से होता है। हृदय की सहज अतार्किक प्रतिक्रियाओं, सहज संवेदन शीलता की भावात्मक, अभावात्मक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से यह जान लेता है की अमुक वस्तु सुंदर है या नही। सर्जनात्मक प्रतिक्रयाएं स्वांत सुखाये और साध्य होती हैं। इस कारण वे विशिष्ट, श्रेष्ठ और सुकून देने वाली होती है। किंतु मानवीय सर्जना की तुलना में प्रकृति की सर्जनात्मक क्षमता कहीं अधिक विशाल होती है। और जहाँ तक उससे अभिभूत होने का प्रशन है, हम में से प्राय सभी ने यह अनुभव किया होगा की जब कभी भी हम उत्तेजित स्थिति में आश्वस्त होने के लिए उसकी ओर उन्मुख होते हैं, तो हमें नितांत सहजता के साथ अपना खोया हुआ सुकून पुनः प्राप्त हो जाता है। और उसका मंगलकारी प्रभाव हम पर पड़ता है।

सौन्दर्य का संबंध मानवीय व्यक्तित्व की उन गहराइयों से है, जिनका हम सामान्यत स्पर्श नही करते, इसलिए जब जो भी अभिव्यंजना उन गहराइयों को स्पर्श करती है, हमें एक गहरा आत्मिक संतोष प्रदान करती है। जो अंतत आह्लादकारी है।

व्यक्ति के जीवन का प्रमुख उद्देश्य यह है की वह विश्व तथा अपने व्यक्तित्व में अंतर्भूत उस आधारभूत सत्यको प्राप्त करे । उसमे स्थाई रूप से अवस्थित हो जाए । तभी वह जीवन के शाश्वत सौन्दर्य का सही अर्थों में प्रत्क्ष्य कर सकेगा। और मनसा वाचा कर्मणा अपने जीवन और व्यवाहर में प्रस्थापित कर सकेगा। यही नही, तभी वह उस सौन्दर्य के जिवंत केन्द्र के रूप में अपने को रूपांतरित करने में सक्षम हो सकेगा।
डियर मित्रों सौन्दर्य की इस विवेचन के बारे में आप क्या सोचते हैं?

2 Comments:

admin said...

आपके कथन से पूर्णत सहमत।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Arvind Mishra said...

प्रभावित करता ललित लखन -विषय मेरी पसंद का है !