आज विज्ञानं जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उसी अनुपात में विवेक शक्ति का ह्वास होता जा रहा है। जिससे अशांति और अराजकता में वृद्धि हो रही है। मनुष्य भौतिक सुविधाओं से संपन्न होते हुए भी मानसिक संतुलन खोता जा रहा है। स्नेह और संवेदनशीलता की कमी आती जा रही है। इससे सम्पूर्ण मानव जाती का ही नुक्सान हो रहा है। इससे बचने का एक मात्र सहज सुलभ मार्ग है - सत्संग! इससे विवेक जागृत होता है। और विकसित होता है। जिससे विज्ञानं और धर्म में सामंजस्य और सामान्तर विकार होता है। जो जीवन को सारा , शांत और संतुलित रखता है। यही जीवन जीने की कला है।
रामचरित मानसा में लिखा है की "बिन सत्संग विवेक न होई। ' सत्संग में ही विवके शक्ति जागृत होती है। सत्संग में जाने से चित्त की वृत्त्यों का शुद्धिकरण सहज ही शुरू हो जाता है। जिससे जीवन के लक्ष्य के प्रति जाग्रति आती है और उत्साह बनता है। सत्संग जीवन जीने की कलही जो हमें सिखाता है की मन का संतुलन खोये बिना जीवन की सभी परिस्थितियों का सामना सुगमता पुर्वक किया जा सकता है।
सच्चे संतजन विश्व के कल्याण के परम आधार हैं। उनकी वाणी से अमृत झरता है। उनके हृदय से आनंद का सतत प्रवाह बहता है। वे जो उपदेश करते हैं,वहीsअत्कर्म बन जाता है। उनका संग ही सत्संग है। जिस जगह वे सत्संग करते हैं वह स्थल पावन बन जाता है। जिस तरह भगवान् भास्कर पृथ्वी को ऊष्मा प्रदान करते हैं, उसी तरह संतजन भी अपने भीतरी खजाने में से ज्ञान रुपी अमृत देकर प्राणियों को सुख रूप उष्णता परत\दान करते हैं। वे खिले हुए पुष्प की भाँती हैं, जो सर्वत्र सुगंध ही बिखरते हैं।
सत्संग का एक मुख्या उद्देश्य दुराचरण का त्याग और सदाचरण का विकास है। स्वामी रामसुखदास जी का कहना है की अआप सत्संग करते हैं तो दुनिया आपसे अच्छे बर्ताव की आशा रखती है। सत्संगी का बर्ताव अच्छ न हो तो लोगो को धक्का लगता है। किसी को भी मेरी वजह से तकलीफ न हो- यह विचार पक्का हो जाए तो येही सत्संग की सार्थकता है।
भाव शुधि के लिए सत्संग सर्वोत्तम है। इस भाग दौड़ और संघर्षपूर्ण जीवन में सच्चे सत्संग का मिलना ही अपनेआप में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जो कभी निष्फल नही जाती। बस हमें करना इतना ही हा की संतो के समीप उनके सत्संग में बैठ कर म उनके सारगर्भित प्रवचन मन में, मश्तिशक में समा जाने दे। हृदय में समा जाने दे। ऐसे जैसे गुड में मीठास, फूल में खुशबु, और वायु में ओक्सिगें । इसी में सत्संग की सार्थकता है। तभी हमारी विवेकशीलता विकसित होगी, व्यतित्व परिमार्जित हगा जीवन सुरभित। बस संत सच्चे मिल जाए।
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मौजूदा भागमभाग वाली जिंदगी में पता नहीं कब शरीर के किसी भाग का दर्द हमारी
दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है, इसका हमें पता भी नहीं चलता। सुबह उठने के बाद
अक्सर...
5 years ago
2 Comments:
kalyug में satsang की shakti पर jor diyaa गया है......
sundar lokha है
achcha lekh likha hai.
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