इस तरह हवस के दौर में मुफलिसों का इन्तेहाँ है,
सर पे धूप नफरत की और पेड़ साए-बान हैं।
मेरे ख्वाब ले के आ गए मुझको उन कलाओं में जहाँ,
पाँव से जमीन भी दूर हैं सर से दूर आसमान है।
कल तलक मेरे वजूद की शोहरतें फिजाओं में रही,
आज मेरे ज़ख्मी हाथों में गफलतों की दास्ताँ है।
ज़ख्म तेरी बेवफाई का यूँ तो कब का भर गया मगर,
ज़ख्म की जगह पर आज भी हसरतों का इक निशाँ है।
वो भी लाश तकती रह गई अपने वारिसों की राह को,
जिसका कल के इक फसाद में दफ़न सारा खानदान है।
अपनी बेगुनाही की सनद इसलिए भी अब फिजूल है,
मेरे हक में कोई यहाँ मुद्दतों से बेजुबान है॥

2 Comments:

दिगम्बर नासवा said...

अपनी बेगुनाही की सनद इसलिए भी अब फिजूल है,
मेरे हक में कोई यहाँ मुद्दतों से बेजुबान है

जिंदगी का फलसफा है इस शेर में ........

vandana gupta said...

ab kya kahun?sab kuch to kah diya