ऊंची उठती दीवारों में
दायरे रोशनियों के
सिमटने लगे हैं
घरों के भी तो मायने
अब बदलने लगे हैं
फूल प्यार के तो
अब नही महकते
घाव बनकर रिश्ते
भी रिसने लगे हैं
हवाओं के झोंके भी
अब हुए हैं बासी
घुटन से प्राण भी
अकुलाने लगे हैं
कैसे रहे आनंद यहाँ पर
फूलों को भी लोग
मसलने लगे हैं.

6 Comments:

Dr. Ravi Srivastava said...

Vijay ji, वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे, बधाई स्वीकारें।

Anonymous said...

बहुत अच्छा लिखतें हैं आप... रुक मत जाना... लिखते रहिएगा....
शुभकामनायें...
www.nayikalam.blogspot.com

ओम आर्य said...

bahut hi sundar bhai

दिगम्बर नासवा said...

अछा लिखा है........... दर्द bhara .......... दिल के दर्द को kaagaz पर utaar दिया है

M VERMA said...

बहुत अच्छा लिखा है

KK Yadav said...

घुटन से प्राण भी
अकुलाने लगे हैं
कैसे रहे आनंद यहाँ पर
फूलों को भी लोग
मसलने लगे हैं.
...behad sundar abhivyakti..badhai !!

KK Yadav
Shabd srijan ki or