सच को झुठलाने की हिम्मत भी कहाँ तक करते,
झूठे ख़्वाबों की हिफाज़त ही कहाँ तक करते,
कोई एहसास न जज़्बात न धड़कन उसमे,
एक पत्थर से मोहब्बत भी कहाँ तक करते।
झूठे ख़्वाबों की हिफाज़त ही कहाँ तक करते,
कोई एहसास न जज़्बात न धड़कन उसमे,
एक पत्थर से मोहब्बत भी कहाँ तक करते।
कह दिया दिल ने तो हालात का गम छोड़ दिया,
हम भला दिल से बगावत भी कहाँ तक करते,
ये तो अच्छा हुआ बाज़ार में आए ही नही,
हम उसूलों की हिफाज़त भी कहाँ तक करते...."
हम भला दिल से बगावत भी कहाँ तक करते,
ये तो अच्छा हुआ बाज़ार में आए ही नही,
हम उसूलों की हिफाज़त भी कहाँ तक करते...."
5 Comments:
ये तो अच्छा हुया बाज़ार तक आये ही नहीं हम उसूलों की हिफाज़त कहाँ तक करते
बहुत ही उमदा इस सुन्दर रचना के लिये आभार्
रवि जी,
एक बहुत ही कसी हुई गज़ल, यह अशाअर तो जैसे जान है पूरी बात की :-
ये तो अच्छा हुआ बाज़ार में आए ही नही,
हम उसूलों की हिफाज़त भी कहाँ तक करते...."
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
कोई एहसास न जज़्बात न धड़कन उसमे,
एक पत्थर से मोहब्बत भी कहाँ तक करते
sach kaha kisi patthar से कोई kab tak dil lagaa sakta है.......... achha kikha है ...........
कोई एहसास न जज़्बात न धड़कन उसमे,
एक पत्थर से मोहब्बत भी कहाँ तक करते
सच कहा किसी पत्थर से कोई कब तक दिल लगा सकता है.......... अच्छा लिखा है ...........
कोई एहसास न जज़्बात न धड़कन उसमे,
एक पत्थर से मोहब्बत भी कहाँ तक करते
--जबरदस्त!!वाह!! बहुत अच्छे.
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