जुदाई के इस भीगे आलम में
अब चांदनी भी तन जलाती है
तन्हाइयों के तल्ख़ मौसम में
पुरवैया भी बैरन बन सताती है
दूर तक पसरे मरघट से सन्नाटे में
साँसे भी मेरी अवरुद्ध हुई जाती हैं
डूबा तो हुआ हूँ आंसुओं के सागर में
फ़िर क्यो बहारे भी मुझे झुलसाती हैं
सुनता हूँ ज़िक्र गैर का तेरी महफ़िल में
मेरे दिल की बस्ती भी वीरान हो जाती है
पाता हूँ जब भी तुझे नज़रों के आईने में
रूह आनंद की पिघल पिघल जाती है।

7 Comments:

mehek said...

सुनता हूँ ज़िक्र गैर का तेरी महफ़िल में
मेरे दिल की बस्ती भी वीरान हो जाती है
पाता हूँ जब भी तुझे नज़रों के आईने में
रूह आनंद की पिघल पिघल जाती है।
bahut hi badhiya

Unknown said...

achha laga.........
abhinandan !

ओम आर्य said...

aadami ho to tan chaandani se bhi jalega ......bahut hi sundar bhaw se saji kawita.....badhaee

नीरज गोस्वामी said...

विरह का अच्छा चित्रण है आपकी रचना में...वाह
नीरज

दिगम्बर नासवा said...

सुंदर प्रेम और विरह की रागिनी...........

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

पाता हूँ जब भी तुझे नज़रों के आईने में
रूह आनंद की पिघल पिघल जाती है।

खुबसुरत भाव

archana said...

bahut khub andaaj bi aur paigaam bi