आज कल भारत में 'आतंकवादी' घटनाएँ क्यों हो रही हैं? क्या इन घटनाओं को आतंकवाद कहना भी चाहिए या ये महज़ क़ानून और व्यवस्था की घटनाएँ जिन्हें कुछ निजी स्वार्थों की वजह से 'आतंकवाद' का नाम दे दिया जाता है. भारत में पिछले कुछ समय पर नज़र डालें तो अनेक ऐसी घटनाएँ हुई हैं जो भारत की क़ानून और व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक नेतृत्व और सरकार के लिए भी चुनौती हैं लेकिन क्या इस चुनौती का सामना करने के लिए समुचित रणनीति पर ग़ौर किया जा रहा है या फिर इन हालात को राजनीतिक स्वार्थों के लिए भुनाने की कोशिश की जा रही है?
इतना ही नहीं, एक तबका इन्हें हिंदू और मुसलमानों से भी जोड़कर देखने लगा है. मगर इसमें धर्म को खींचना ग़लत है. जो लोग क़ानून के ख़िलाफ़ जो भी कार्रवाई करते हैं वे सब क़ानून की नज़र में अपराधी हैं और उनके साथ उसी के अनुसार बर्ताव होना चाहिए. इसमें हिंदू या मुसलमान होने की कोई बात ही नहीं है. क़ानून की नज़र में अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसी के अनुसार उनका दर्जा तय होना चाहिए.
आतंकवाद का इस्तेमाल किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया जाता था लेकिन अब इसकी परिभाषा कुछ बदल गई है, आतंकवाद का मतलब होता था किसी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए की गई विध्वंसक कार्रवाई लेकिन अब इसका मतलब कुछ बदल सा गया है. भारत में जो बम विस्फोट की घटनाएँ हो रही हैं उनका राजनीतिक लक्ष्य सरकार को अस्थिर करना हो सकता है. इन घटनाओं को तथाकथित इस्लामी आतंकवाद से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि यह उस तरह का आतंकवाद है जो किसी परेशानी या हताशा की वजह से पैदा हुआ है.
ऐसे में जब भी किसी समुदाय के कुछ सदस्यों की गतिविधियों की वजह से पूरे समुदाय को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है तो उसके ख़तरनाक परिणाम होते हैं. इस प्रवृत्ति को ख़त्म किया जाना चाहिए. हाल के समय में आज़मगढ़ को आतंकवाद का गढ़ कहा जाने लगा जबकि सच्चाई ये है कि आज़मगढ़ में लाखों लोग रहते हैं और अगर उनमें से चंद लोग किन्ही विध्वंसकारी गतिविधियों में शामिल हो भी गए तो पूरे आज़मगढ़ को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. इसी प्रकार वर्ष २००२ में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के के लिए कुछ हिंदुओं को ज़िम्मेदार ठहराया था लेकिन इस आधार पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि सारे गुजराती हिंदू सांप्रदायिक ही होते हैं.
कुछ हिंदुओं का कहना है कि जितनी भी 'आतंकवादी' घटनाएँ होती हैं उनमें मुसलमानों का हाथ होता है. दूसरी तरफ़ अनेक मुसलमानों का कहना है कि उनके साथ ना सिर्फ़ भेदभाव होता है बल्कि बड़े पैमाने पर उनके अधिकारों का उल्लंघन होता है. उन पर हमेशा शक किया जाता है. ऐसे माहौल में किसी घटना की सच्चाई क्या है, उसे जानने का इंतज़ार करने के बिना बहुत से लोग आनन-फानन में कोई राय बना लेते हैं जिसे देश और समाज का शायद इतना बड़ा नुक़सान हो जाता है जिसकी भरपाई करना अगर असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल ज़रूर होता है. क्या मीडिया को ऐसे माहौल में संयम बरतने की ज़रूरत है.
मुसलमान भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है और उनके एक तबके में ये भावनाएँ पनप रही हैं कि इस समुदाय को दबाने की कोशिश की जा रही है और ऐसा जब भी होता है वो राजसत्ता की मदद से होता है. चिंता की बात ये है कि राजनीतिक नेतृत्व की उदासनीता की वजह से एक धर्मनिर्पेक्ष देश में समाज सांप्रदायिक रास्तों पर बँटता नज़र आने लगता है.
इसके लिए राजनीतिक स्वार्थ ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है जिसे रोकना होगा. मेरी समझ में राजनीतिक नेतृत्व ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है. जब भी कोई घटना होती है तो उन सबका ध्यान सिर्फ़ वोट की राजनीति पर होता है. अगर वोट की राजनीति ना हो तो, बहुत सारी घटनाएँ हो ही नहीं. मुझे सबसे बड़ा अफ़सोस यही है कि जिनके हाथ में क़ानून को लागू करने की ज़िम्मेदारी है, वो ऐसी कोई घटना होने क्यों देते हैं और अगर कोई घटना हो जाती है तो जो गुनहगार हैं उन्हें पकड़कर सख़्ती से सज़ा क्यों नहीं दिलवाते हैं.
अगर हम इस बहस को सीमित करते हुए यह कहें कि दरअसल यह कोई 'आतंकवाद' नहीं बल्कि क़ानून और व्यवस्था का एक मामला है तो शायद कुछ ग़लत नहीं होगा क्योंकि अनेक जानकारों का मानना है कि हर समस्या की कोई ना कोई जड़ होती है और उसमें हिंदू- मुसलमान या ईसाई रंग ढूंढना ग़लत है।
ऐसे में क्या राजनीतिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी इस ख़तरनाक मानसिकता को बढ़ने से रोकने की नहीं है. क्या सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि समस्या की जड़ को समझने की कोशिश करे और उसी के अनुसार कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे समाज को बँटने से रोका जा सके.

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