सांझ ढले
मेरे मन के सूने आंगन में,
तेरी यादें कभी
अंगारों सी दहकती हैं,
तो कभी शीतल फुहारों सी
बरसती हैं,
कभी फूलों सी
खिलखिलाती हैं
तो कभी काँटों सी
गड़ती हैं
अज़ीज़ बहुत हैं मुझे यादें तेरी,
कभी तनहा नही छोड़ती हैं,
गम, आंसू, आहें, तड़प, उदासी
ढेरों खिलोनों से बहलाती हैं
मरने नही देती
फ़िर फ़िर
मेरे जीने का सामाँ कर जाती हैं।

3 Comments:

दिगम्बर नासवा said...

उनकी यादों से पीछा छुडाना मुश्किल है विजय जी.......
पर क्या आप चाहते भी हैं पीछा छुडाना

vandana gupta said...

wo yaadein kya jo yaad na rahein
har pal dil ke aas paas na rahein.

yaadein aisi hi hoti hain.........kabhi rulati hai to kabhi hansati hain......kabhi tanha nhi chodtin phir marne ka sawaal hi nhi uthta.

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

यादें होतीं ही ऐसी हैं........ अगर गम हैं इनमे तो हसीं भी छिपी होती है..... तो क्यों न हम उस हसी के पल को ही पाने की कोशिश करें......