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ख़ुद मुखौटों के घर में रहते हैं,
रोज जो आईने बदलते हैं।
धूप जिनका लिबास हैं यारों,
वे कहा धूप में निकलते हैं।
शक्लो-सूरत से यूँ दरिंदगी भी,
हुबहू आदमी से लगते हैं।
जो अंधेरे में रो रहे घुपचुप,
उनके दम से चिराग जलते हैं।
जब कोई रास्ता नही मिलता,
तब कई रास्ते दिखाते निकलते हैं।
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रोने दे तू आज हमको तू आँखे सुजाने दे ,
बाहों में लेले और ख़ुद को भीग जाने दे ।
है जो सीने में कैद दरिया वो छुट जाएगा ,
है इतना दर्द कि तेरा दामन भीग जाएगा।
3 Comments:
बहुत ही बढ़िया साहब
दिल के जज्बात को बखूबी बयां किया है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
शक्लो-सूरत से यूँ दरिंदगी भी,
हुबहू आदमी से लगते हैं।
आदमी की सही tasweer ...........
sachmush आपने lajawaab लिखा है
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