बरसों के बाद देखा शख्स दिलरुबा सा,
अब जेहन में नही है पर नाम था भला सा।
एब्रो खिचे खिचे से ऑंखें झुकी झुकी सी,
बातें रुकी रुकी सी लहजा थका थका सा।
पहले भी लोग आए कितने ही ज़िन्दगी में,
वो हर तरह से लेकिन औरों से था जुदा सा।

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अब तो एक ही तमन्ना है हमारी,
की असमां से हमारा पैगाम आ जाए।
जीना चाहता भी कौन है यहाँ,
मरके ही शायद इन तारों में अपना भी नाम आ जाए।

3 Comments:

Anonymous said...

मरके भी इन तारों में अपना नाम आ जाए
क्‍या पता इस जिंदगी की सुबह कब खत्‍म हो और शाम आ जाए।
बेहतर। बधाई।

शारदा अरोरा said...

दोनों कवितायें बहुत सुन्दर रचीं हैं , मगर ये क्या कहाँ जिन्दगी की तरफ खींचती कविता और कहाँ मर कर तारा बनने की ख्वाहिश , दोनों में बहुत विरोधाभास है , एक वक़्त पर एक ही रस पिलाओ | लिखा बहुत बढ़िया है |

दिगम्बर नासवा said...

रवि जी............
इतनी उदासी क्यूँ है आज...........मरने की दुआ ठीक नहीं.......
लाजवाब लिखा है