मैंने तो ऐसा मंजर कभी देखा न था,
दिन ढल जाता है और साया कोई लंबा न था।

फ़िर तो उसके सामने जैसे कोई रास्ता न था,
जीतने वाला कभी यूँ हौसला हारा न था।
लोग तो कहते थे लेकिन मैं भी तो अँधा न था,
मैंने ख़ुद देखा है मेरे धाध पर भी चेहरा न था।
रोकना चाहता था मैं, वो भी रुक जाता मगर,
एक झोंका था हवा का वो ठहर सकता न था।
कितने ही कच्चे घडे लहरों को याद आने लगे,
साहिलों के होंठों पर ऐसा कभी नोहा न था।
गोद में माँ की बच्चे रात भर रोते रहे,
पास मुजरों के क्या कोई किस्सा न था।

2 Comments:

दिगम्बर नासवा said...

रोकना चाहता था मैं, वो भी रुक जाता मगर,
एक झोंका था हवा का वो ठहर सकता न था।

लाजवाब रवि जी...............रचना आपके लेखन की गहराई को दिखाती है..........

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन!