मेरी मजबूरी है, उनकी कोई मजबूरी तो नही,
वो मुझे चाहे या मिल जाए ये ज़रूरी तो नही।
यह कुछ कम है कि वो बसे है मेरी सांसों में,
वो सामने हो मेरी आंखों के ज़रूरी तो नही।
जान कुर्बान मेरी उसकी हर मुस्कराहट पर,
चाहत का तकाज़ा है येही अकाल-ऐ-खुरूरी तो नही।
अब तो निकल के आंखों से यादों में जा बसे है वो,
यही है कुर्बत-ऐ-चाहत कोई दूरी तो नही।
क्यूँ सुलगाती है अपने आप को, दिल भी तेरा,
जान भी तेरी है कोई चिंगारी तो नही।
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मुस्कुराना ही खुशी नही होती,
उमर बिताना ही जिंदगी नही होती।
ख़ुद से भी ज़्यादा ख्याल रखना पड़ता है दोस्तों का,
क्योकि दोस्त कहना ही दोस्ती नही
होती।

4 Comments:

bnihal.com said...

Aapne Bahut Hi achha likha hai

PREETI BARTHWAL said...

बहुत ही खूबसुरत रचना है।

दिगम्बर नासवा said...

मुस्कुराना ही खुशी नही होती,
उमर बिताना ही जिंदगी नही होती।
ख़ुद से भी ज़्यादा ख्याल रखना पड़ता है दोस्तों का,
क्योकि दोस्त कहना ही दोस्ती नही होती।

वाह..बहूत खूब समझा है दोस्ती को...........अच्छा लिखा है

Anonymous said...

उमर बिताना ही जिंदगी नही होती।

aapne lekhan mein bahut gaherai hai......