रह रह के रात बुलाती अपने आगोश में
पर नींद आँखों से दूर ही रहती है
बिस्तर की सिलवटें भी चुभती हैं जुदाई में
और रूह भी तार तार होने लगती है
तुझ से दूर रहकर में जियूं तो कैसे
जाँ भी जिस्म से रूठने लगी है
हर बार तेरे वादे पे ऐतबार करता हूँ
हर बार रूह छलनी होने लगती है
तेरे न आने की कसम भी टूटती नहीं
सहर भी होती नहीं, रात भी कटती नहीं
इक अज़ब सी सिहरन फिजाओं में फैलने लगती है
जब मेरी धडकनें भी बेज़ुबां होने लगती हैं।
अगर आप मांसपेशियों और रीढ़ की हड्डी के दर्द से हैं परेशान, तो जानें कैसे
मिलेगा आराम
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मौजूदा भागमभाग वाली जिंदगी में पता नहीं कब शरीर के किसी भाग का दर्द हमारी
दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है, इसका हमें पता भी नहीं चलता। सुबह उठने के बाद
अक्सर...
5 years ago
3 Comments:
विजय जी...एक प्रभावी अभिव्यक्ति रचना बहुत बढ़िया लगी..बधाई...
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ..
सादर वन्दे
सुन्दर रचना
रत्नेश त्रिपाठी
बहुत उम्दा रचना!!
मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.
नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.
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