अब
कह तो चुके हैं
सब कुछ,
फ़िर ये मन
अनमना सा
क्यों है ?
हम
चल तो चुके हैं
उजाले की ओर,
फ़िर ये अँधेरा
घना सा
क्यों है ?
रह तो
रहे हैं साथ
कब से,
फ़िर ये भ्रम
बना सा
क्यों है ?
सब
उठा तो चुके हैं
सितम ज़माने के,
फ़िर ये खंज़र
तना सा
क्यों है ??
[] राकेश 'सोहम'
3 Comments:
अच्छा लगा रचना को पढ़कर
सब
उठा तो चुके हैं
सितम ज़माने के,
फ़िर ये खंज़र
तना सा
क्यों है ?
bahut achcha.........
waah ........bahut hi sundar bhav aur alfaz.
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