पर नींद आँखों से दूर ही रहती है
बिस्तर की सिलवटें भी चुभती हैं जुदाई में
और रूह भी तार तार होने लगती है
तुझ से दूर रहकर में जियूं तो कैसे
जाँ भी जिस्म से रूठने लगी है
हर बार तेरे वादे पे ऐतबार करता हूँ
हर बार रूह छलनी होने लगती है
तेरे न आने की कसम भी टूटती नहीं
सहर भी होती नहीं, रात भी कटती नहीं
इक अज़ब सी सिहरन फिजाओं में फैलने लगती है
जब मेरी धडकनें भी बेज़ुबां होने लगती हैं।
चाहे आप इतिहास में कितने पन्ने पीछे क्यों न चले जाएँ, वेश्या-वृत्ति कभी भी भारत में व्यवसाय या व्यापार के रूप में नहीं रहा है. भारतीय संस्कृति में इसे सदैव निम्न दृष्टि से देखा गया है. अब अगर इसे कानूनी मान्यता दे दी गयी तो भारतीय समाज से बड़ी तेजी से नैतिकता का ह्रास होने लगेगा. व्याभिचारी प्रवित्ति के लोगो को तो जैसे खुली मनमर्जी करने की आजादी मिल जाएगी. जो काम अब तक छुप-छुप कर हो रहा था वह अब खुले आम हो जाएगा. समाज में औरतों, लड़कियों की स्थिति और निम्नतर हो जाएगी.
मान्यता देने का सीधा मतलब यह निकलेगा कि हम इस सामाजिक कलंक को मिटाने में असमर्थ है. कोई भी व्यक्ति अपनी मां, बहन, बेटी को एक वेश्या के रूप में नहीं देखना चाहता तो फिर दूसरी औरत को वेश्या के रूप में क्यों देखना चाहता है. सरकार महिलाओं की सुरक्षा तो ठीक से कर नहीं पाती, उल्टे उसे खुलकर सामान्य उपभोग की वस्तु की तरह इस्तेमाल करने की क़ानून बनाने की बात होने लगी है. वेश्यावृत्ति को क़ानूनी मान्यता देने से कई सामाजिक संकट उत्पन्न हो जाएँगे. कई लोग इस धंधे को अपनाने के लिए प्रेरित होंगे. एड्स के मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी होगी.
मुझे तो इस बात पर आश्चर्य है की भारत का सर्वोच्च न्यायालय इसे कानूनी रूप देने के लिए उद्द्यत दिखाई दे रहा है। मेरी राय में तो इसपर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए. तभी समाज में स्वच्छ एवं नैतिकता पूर्ण वातावरण कायम रह सकेगा. जहां तक इस धंधे पर प्रतिबन्ध लगने से इससे सम्बंधित लोगो के बेरोजगार हो जाने की बात है तो सरकार या सर्वोच्च न्यायालय इन लोगो को कोई दूसरा अच्छा काम उपलब्ध क्यों नहीं करवाती?
मुझे नहीं लगता की कोई भी औरत अपनी स्वेच्छा से इस धंधे में कदम रखती है। उसे कुछ लोग वेश्यावृत्ति करने को मजबूर करते हैं. ये बात और है की जो औरत एक बार इस दुनिया में कदम रख देती है, उसे इससे बाहर निकलने के सभी रास्ते बंद नज़र आते हैं, जिसके लिए हमारा समाज भी कम जिम्मेदार नहीं है. शायद यही वजह है की बाद में ये सेक्स-वर्कर इसी धंधे को करते रहना चाहते हैं, ताकि उनका जीवन-यापन होता रह सके।
नोट: अगर आप इस लेख को पढ़ रहे हैं तो अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर देवें.
दहकता ख्याल
तपता बदन
तेरे प्यार ने मुझको
क्या क्या दे दिया
भीगी आँखें
भर्राया गला
लरजते होंठ
तेरी जुदाई ने मुझको
तेरा बीमार बना दिया
सूनी निगाहें
खामोश सदाएं
उदास फिजाएं
तेरे वादे ने मुझको
दीवाना बना दिया
बेकाबू धडकनें
बहकते कदम
लडखडाती जुबां
तेरे अफ़साने ने मुझको
आवारा बना दिया
बदहवास हवाएं
उमड़ती घटाएं
ठिठुरता सूरज
तेरे इंतज़ार ने मुझको
पत्थर बना दिया।
तो खुद को सागर ही समझने लगता है
दूसरों को तो बात बात मे दिखाते हैं बेसबब
पर कोन है जो अपना आइना खुद बनता है
फूल कब का खिलना भूल गए होते
कोई तो है जो कांटो को नियंत्रित करता है
तिनको के आशियाने कब के बिखर गए होते
कोई तो है जो आँधियों के रुख बदलता है
व्यर्थ क्यों गवाएं बेहिसाब नहीं है ये दौलत
कोई तो है जो साँसों का हिसाब रखता है।
गुमसुम चेहरे चारों ओर
सब के मुँह में जुबाँ है लेकिन
लबों पे पहरे चारों ओर
सब के हाथों में दिखते हैं
सौ उम्मीदों के परचम
पर अनजाने डर से सब के
कदम हैं ठहरे चारों ओर
आँखों में आँसू, पाँवों में छाले
मन में मलाल-ऐ-मजबूरी
लगता है जैसे, सब के दिलों में
घाव हैं गहरे चारों ओर
तुम भी शायद यही कहोगे
देख के बढ़ते जुल्मोसितम
जंग में केवल बचे हैं
अंधे,गूंगे, बहरे चारों ओर।
उन्होँने उदारता दिखाई
एक मानव कल्याण समिति बनाई
और
भूख पर विस्तृत चर्चा कराई
ठण्ड से ठिठुरते, दांत किटकिटाते
वस्त्रहीन बच्चे की नग्नता पर
भी उन्होँने गोष्ठी आयोजित कराई
और
नैतिकता की आवश्यकता समझाई
गरीब, असहाय बीमार बच्चे की
रुग्णावस्था पर
उन्होँने बहुत चिंता जताई
और
इसे स्वस्थ्य के प्रति घोर लापरवाही बताई,
बेसहारा, बेघरबार बच्चे की
दयनीय स्थिति पर आख़िर
उनकी आँख नम हो आई
और
उन्होँने भारी हृदय से उसकी पीठ थपथपाई
और अखबारों मे अपनी फोटो खिंचाई।
प्रशंशनीय है उनकी दयालुता और उदारता,
पर
वो निरीह मासूम बच्चा पहले से भी
ज्यादा भूखा, ठिठुरता, निराश्रित अभी भी
खडा है राह मे सूनी आँखों से निहारता।
सनम मेरे फिर भी है मुझको तुमसे मोहब्बत बहुत
हर घडी रहता है तस्स्वुर मे तू ही
ए मोहब्बत मेरे तेरी इतनी इनायत ही है बहुत
हर पल तन्हाईयाँ ही साथ थी कभी
दिल-ए-मेहफिल मे अब तेरी इतनी मौजुदगी ही है बहुत
कभी आ जाते है लब पे ये बोल हो जाऊ दुर तुझसे
इस दिल को मगर तेरी ज़रूरत भी है बहुत
जुदाई भी तेरी ही देखी है और रंग़-ए-मेहफिल भी
तेरे दिल मे बसा मेरे प्यार का एक नुर ही है बहुत
जब पी ही ली है ज़हर-ए-मोहब्बत तो अब क्या
कभी सुना था की इस ज़हर मे होती है लेज़्ज़त बहुत
हर खुशी और गम से नवाजा है खुदा ने मुझे
जानू तेरी बाहो मे फना होने की एक तम्मना है बहुत
जब भी मैं
झांकता हूँ
तो पाता हूँ
की एक व्यर्थ की
आपाधापी में
किया तो बहुत कुछ
पर
पहुंचा कहीं नहीं
दौड़ - धूप भी
बहुत कर ली
पर पहुंचा कहीं नहीं
कोल्हू के बैल
की तरह
परिधि पर ही
व्यर्थ घूमता रहा
तमन्नाओं को
तराशने मे लगा रहा
उम्मीदों के बहाव मे
बहता रहा
फ़िर भी
मकाँ मकाँ ही रहा
घर बन नही पाया
रिश्तों का उपवन
मुरझाता गया
मधुबन बन नही पाया
उम्र का बोझ ढ़ोते ढ़ोते
ठोकरें खाते खाते
जीवन का तो अंत आया
पर
हसरतों का फ़िर भी मुकाम ना पाया।
पडा रहू मैं सदा सदा
भगवन तेरे चरणों मे
यही तमन्ना मेरे मालिक
दम निकले तेरे चरणों मे
तुम तरु मैं लतिका निर्बल
लिपटा लो अपने चरणों मे
बनकर रेत का नन्हा कण
द्वारे पे तेरे पडा रहू
सफल अपना जीवन कर लू
लिपट रहू जब चरणों मे