दुश्मन मेरे खुशियों का ज़माना ही नही था,
तुम ने भी कभी अपना तो जाना ही नही था।
किया करता अकेला मैं सजा कर कोई महफिल,
जब शहर में किसी ने निबाहना ही नही था।
दिल ने तो बहुत चाहा मगर किस तरह जीते,
जीने के लिए कोई बहाना ही नही था।
मुड़- मुड़ कर देखता रहा मैं उमर भर मगर,
तुम आए नही तुमको तो आना ही नही था।
एक रास्ता बचा था वो भी लौटने का था,
जाता मैं कहाँ कोई ठिकाना ही नही था।
अब झुक कर मेरे लाश को झिंझोर रहे हो,
जैसे तुम्हारे इस यार को जाना ही नही था।
1 Comments:
अब झुक कर मेरे लाश को झिंझोर रहे हो,
जैसे तुम्हारे इस यार को जाना ही नही था। wah kya baat kahi hai so nice lines & heart touching
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