कभी नजरें मिलाने में ज़माने बीत जाते हैं,
कभी नजरें चुराने में ज़माने बीत जाते हैं।
किसी ने आँख भी खोली तो सोने की नगरी में,
किसी को घर बनाने में ज़माने बीत जाते हैं।


कभी काली सियाह रातें हमे इक पल की लगती हैं,
कभी इक पल बिताने में ज़माने बीत जाते हैं।
कभी खोला दरवाज़ा खड़ी थी सामने मंजिल,
कभी मंजिल को पाने में ज़माने बीत जाते हैं।


एक पल में टूट जाते हैं उमर भर के वो रिश्ते,
जिन्हें बनाने में ज़माने बीत जाते हैं।


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न जाने किसका ख्वाब कौन सी मंजिल, किसकी नज़र में है।


सदियाँ गुज़र गयी कि ज़माना अभी सफर में है।

4 Comments:

News4Nation said...

मुझे आपकी रचनाएँ बहुत पसंद आई,मैं बहुत जल्द आपकी रचनाओं को अपने ब्लॉग पर प्रकासित करने के बारे में सोच रहा हूँ!
www.yaadonkaaaina.blogspot.com

आपका स्वागत हैं!!

archana said...

jamana ab bi safur me hai kya baat hai

ashok andrey said...

apki kavita padi achchi lagin meri aour se badhai savikar karain


ashok andrey

संत शर्मा said...

Bahut khubsurat, Yu hi achcha likhte rahe.