एक दुबली-पतली पर पैनी और तेज़ी भरी काया के 29 वर्षीय राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के कमांडो सुनील कुमार यादव का यह कहना है, “जब ताज होटल के कमरों में घुसकर हम वहाँ फंसे लोगों को विश्वास दिलाते थे कि अब वो सुरक्षित हैं तो उनकी आंखों में हमारी छवि किसी भगवान से कम नहीं नज़र आती थी। ये गर्व के क्षण थे, इन्हें कभी भुला नहीं सकते हम..."

सुनील कुमार यादव एनएसजी के कमांडो हैं. उन्हें ताज में चरमपंथियों से मुठभेड़ के दौरान तीन गोलियाँ लगी थीं. लेकिन मुंबई के बाम्बे अस्पताल में भर्ती सुनील की आंखों में दर्द की एक लकीर तक नहीं है. सुनील बताते हैं कि मिशन पर जाने से पहले फ़ोन, घर-परिवार, आगे-पीछे के सवाल, पहचान और बाकी तमाम बातें भूल जाते हैं। याद रहता है तो सिर्फ़ मिशन. सुनील बताते हैं कि हम आदेश मिलते ही रात को दिल्ली से रवाना हुए. मुंबई हवाई अड्डे से सीधे सचिवालय के पास पहुँचे और फिर टीम बना दी गईं.

इसके बाद 27 तारीख सुबह ताज में सबसे पहले अंदर जाने वाले कमांडो दस्ते में मैं था। हमने छठी मंज़िल से अपना काम शुरू किया. वहाँ से लोगों को निकालते और चरमपंथियों से मोर्चा लेते हुए हम नीचे की तरफ़ आ रहे थे. तीसरी मंज़िल तक पहुंचने में रात होने लगी थी. हम लोग रात के चश्मों के सहारे सब कुछ देख पा रहे थे. पूरी इमारत में घुंआ भरा हुआ था. एक-एक कमरे की तलाशी का काम चल रहा था. कमरों के अंदर फंसे लोग घबराए हुए थे कि बाहर कहीं चरमपंथी न हों. हम लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण यह था कि कहीं चरमपंथी भी लोगों को बंधक बनाकर कमरे में मौजूद न हों. लोग पुलिस-पुलिस की आवाज़ पर भी कमरे नहीं खोल रहे थे. इस दौरान हमारा साथ दे रहे थे होटल के कुछ कर्मचारी. विदेशी भाषाओं में बात करके वे फंसे हुए लोगों को समझा रहे थे, ताले खोलने में हमारी मदद कर रहे थे.

"हम जैसे ही कमरों में जबरन दाख़िल होते थे, लोग डर के मारे सांसें रोककर खड़े हो जाते थे। जैसे ही उन्हें समझ आता था कि हम उन्हें बचाने आए हैं, वे रोने लगते थे, बदहवास हो जाते थे, हमसे गले मिलने लगते थे. मैंने इन लोगों की आंखों में अपने प्रति एक भगवान के आ जाने जैसा भाव देखा है. यही बात हमें ताकत दे रही थी. इस ऑपरेशन की यह सबसे पहली याद रहेगी मेरे ज़हन में. चरमपंथियों से मोर्चा लेते हुए जब मैं ताज की तीसरी मंज़िल पर पहुँचा तो वहाँ किसी तरह से एक कमरे में खुद को छिपाकर बैठी एक अधेड़ उम्र की विदेशी महिला को बाहर निकाला. इस महिला को कवर करता हुआ मैं अगले कमरे की ओर बढ़ा. दरवाज़ा खोलते ही गोलियों की तड़तड़ाहट हुई. कमरे में एक चरमपंथी घात लगाए बैठा था. होटल कर्मचारी घायल हो गया. मैंने जवाबी गोलीबारी की पर अब मेरे लिए पहले इन दोनों लोगों की जान बचाना ज़्यादा बड़ी प्राथमिकता थी. अब तक दरवाज़ा बंद हो गया था पर गोलियाँ दरवाज़े के पार आ रही थीं. मैंने दोनों लोगों को खींचकर गोलियों के दायरे से बाहर किया. अब तक तीन गोलियाँ मेरे पीछे धंस चुकी थीं."

इसे कहते हैं...रीयल जिंदगी का हीरो. ये हैं सचमुच में देश के स्टार। परन्तु दुर्भाग्य से इन सितारों को सरकार और जनता वह सम्मान और स्थान भी नही देती जो फिल्मी और क्रिकेट के सितारों को अनायास ही मिलता है।

साभार- बी.बी.सी.

1 Comments:

दिगम्बर नासवा said...

ऐसी लोग ही नींव के पत्थर होते हैं.........
सलाम उन सब को