इस पड़ाव पर
मन के मरुथल में
तुम्हारी चाहत के
कमल खिल गए हैं ।

सोचता हूँ
छीन लूँगा तुम्हें
इस जमाने से ।

लेकिन
जब भी
ऐसा सोचता हूँ,
बाँहें
पूरे योवन से
फडफडा उठातीं हैं
मुट्ठियाँ
सख्त हो जातीं हैं
और .......

और
उनमें दबा
साहस
सरकने लगता है !
सरकता ही जाता है
भुरभुरी
रेत की तरह !!
[] राकेश 'सोहम'

5 Comments:

Unknown said...

साहस
सरकने लगता है !
सरकता ही जाता है
भुरभुरी
रेत की तरह !!

kya khoob likha hai
badhai

निर्मला कपिला said...

उनमें दबा
साहस
सरकने लगता है !
सरकता ही जाता है
भुरभुरी
रेत की तरह !!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति पूरी कविता पसंद आयी बधाई

दिगम्बर नासवा said...

BAHUT HO KAMAAL KA LIKHA HAI ....

Rajeysha said...

उनमें दबा
साहस
सरकने लगता है !
सरकता ही जाता है
भुरभुरी
रेत की तरह !!

इतना कमजोर नहीं होना चाहि‍ये... कि‍सी पुरूष को।

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

bhurbhuri ret ki tarah... adbhut!!!!!! aapke shabd bahut chhu jate hai man ko ....