मत पूछ आलम बेचैनियों का क्या होता है
जब महबूब दिल मे तो होता है
पर निगाहों से दूर बसताहै
इक हूक सी दिल मे उठती है
और जिस्म काँपता रहता है
जब इंतज़ार की घडिया रुलाती हैं
दिल हर पल सिसकता रहता है
तब कई रंग उभरते चेहरेपे
और जिस्म सिहरता रहता है
जब नाउम्मीदी दर्द जगाने लगे
आशाओं की लो थरथराने लगे
तब दर्द सा दिल मे उठताहै
और जिस्म बस तडपता रहता है
जब हवाएं भी उसकी साँसों सी महक उठे
हर आहटउसी की पदचाप लगे
तब धड़कने भी बेकाबू हो जाती हैं
और जिस्म बस मचलता रहता है
जब यादों के अक्स बिखरने लगे
जिस्म से जान भी जाने लगे
तब लहू भी ज़मनेलगता है
और जिस्म पिघलने लगता है
और जिस्म पिघलने लगता है

4 Comments:

निर्मला कपिला said...

सुन्दर अभिव्यक्ति है मुझे लगता है शीर्शक पर बेचैनियों होना चाहिये था बेचनियों नहीं शुभकामनायें

ओम आर्य said...

बेहद सुन्दर भावाभिव्यक्ति ........बहुत ही खुब!

Mumukshh Ki Rachanain said...

जब नाउम्मीदी दर्द जगाने लगे
आशाओं की लो थरथराने लगे
तब दर्द सा दिल मे उठताहै
और जिस्म बस तडपता रहता है

बहुत बेहतरीन पंक्तियाँ हैं

बहुत खूब,

हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

मुकेश कुमार तिवारी said...

विजय जी,

नज़्म ने अपने हर हिस्से से बेचैनियों को उभारा है। प्रतीकों ने बेचैनियाँ बढाई हैं :-

जब नाउम्मीदी दर्द जगाने लगे
आशाओं की लो थरथराने लगे
तब दर्द सा दिल मे उठताहै
और जिस्म बस तडपता रहता है

एक और बानगी देखियेगा बेचैनियाँ बढ जायेंगी :-

तब धड़कने भी बेकाबू हो जाती हैं
और जिस्म बस मचलता रहता है

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी