दोस्त क्या खूब वफाओं का सिला देते हैं।
हर नए मोड़ पे एक दर्द नया देते हैं।
तुमसे तो खैर घड़ी भर का ताल्लुक रहा,
लोग सदियों की रफाकात भुला देते हैं।


कैसे मुमकिन है कि धुंआ न हो और दिल भी जले,
चोट पड़ती है तो पत्थर भी सदा देते हैं।
कौन होता है मुसीबत में किसी का ए दोस्त,
आग लगती है तो पत्ते भी हवा ही देते हैं।


जिन पे होता है दिल को भरोसा,
वक्त पड़ने पे वही लोग धोखा भी देते हैं।

दोस्त क्या खूब वफाओं का सिला देते हैं।

हर नए मोड़ पे एक दर्द नया देते हैं।

8 Comments:

अनिल कान्त said...

kya baat hai .....bahut khoob ...
ye dard bhi khoob hota hai ...kabhi aisa to kabhi waisa

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Lokendra said...

ये लाईने मैंने पहले भी सुनी थी तो अच्छी लगी थी....
लेकिन यहाँ तो तो ये कोई दर्द ही दिखा रहा है....

दिगम्बर नासवा said...

लगा कोई गहरी चोट खाई है और ये रचना लिखी...............सुन्दर प्रस्तुति है............सब लाइनें लाजवाब हैं

Mohammad Khursheed Akram Soz said...

शायर का नाम क्यूं नहीं दिया ? शायर का नाम है ; अब्बास ताबिश !!!

Mohammad Khursheed Akram Soz said...

शायर का नाम क्यूं नहीं दिया ? शायर का नाम है ; अब्बास ताबिश !!!

Mohammad Khursheed Akram Soz said...

यह अौर ग़लत बात है कि मक़ता वाले शेर से भी शायर का नाम हटा दिया अौर शेर को भी बिगाड़ दिया , सही शेर इस तरह है :
जिन पे होता है दिल को भरोसा,ताबिश !
वक्त पड़ने पे वही लोग दग़ा देते हैं।

Mohammad Khursheed Akram Soz said...

यह अौर ग़लत बात है कि मक़ता वाले शेर से भी शायर का नाम हटा दिया अौर शेर को भी बिगाड़ दिया , सही शेर इस तरह है :
जिन पे होता है दिल को भरोसा,ताबिश !
वक्त पड़ने पे वही लोग दग़ा देते हैं।

Mohammad Khursheed Akram Soz said...

यह अौर ग़लत बात है कि मक़ता वाले शेर से भी शायर का नाम हटा दिया अौर शेर को भी बिगाड़ दिया , सही शेर इस तरह है :
जिन पे होता है दिल को भरोसा,ताबिश !
वक्त पड़ने पे वही लोग दग़ा देते हैं।