हमारे देश में लोकतंत्र है और हमें सरकार व जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या हम लोकतंत्र के प्रति अपने अधिकारों व कर्त्तव्य को लेकर सजग हैं? यह एक बड़ा सवाल है। लोकतंत्र में किसी भी देश को सरकार व जनप्रतिनिधि वैसे ही मिलते हैं, जैसा उसका समाज होता है। वर्तमान में देश की जो राजनीतिक हालत है, उसके लिए केवल राजनीतिक दल व राजनेता ही दोषी नहीं हैं। कहीं न कहीं हम सभी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्हें सत्ता में पहुंचाने का काम तो हम ही करते हैं, कभी वोट डालकर कभी उदासीन रह कर। जो वोट नहीं करते उनका मानना है कि सरकार चाहे किसी भी दल की बने उनकी स्थिति में विशेष बदलाव आने वाला नहीं है। चुनाव के प्रति जनता की उदासीनता लोकतंत्र के लिए शुभलक्षण नहीं है।
समय आ गया है, जब देश के हर नागरिक को यह सोचना होगा कि आखिर क्यों उनका नुमाइंदा दागदार है? सीधी सी बात है कि किसी भी नेता के चरित्र को देख कर उसके पीछे चलने वालों के चरित्र का आकलन किया जा सकता है। तो क्या मुट्ठी भर दागदार लोग देश की सौ करोड़ आबादी के चरित्र पर धब्बा लगा रहे हैं? क्या जिस लोकतंत्र के प्रति देश का हर खासो-आम श्रद्धा का भाव रखता है वह ऐसा ही होना चाहिए? जिन्हें हम चुन कर संसद में भेजते हैं क्या वह हमारी अपेक्षा के अनुरूप देश को चला रहे हैं? यदि नहीं तो फिर निश्चित रूप से गलती है हमारे फैसलों में।
लोकसभा चुनाव में अगर आपके क्षेत्र में ऐसे उम्मीदवार हैं, जिन्हें आप अपने प्रतिनिधित्व के लायक नहीं समझते हैं तो आप उसे अस्वीकार भी कर सकते हैं। निर्वाचन आयोग बकायदा प्रत्येक बूथ पर ऐसी व्यवस्था करता है कि लोग मतदान पत्र पर अंकित उम्मीदवारों को अस्वीकृत कर सकते हैं। आप उम्मीदवार को अस्वीकार कर सकते हैं। जब आप मतदान करने जाते हैं और आप कहते हैं कि इनमें से मुझे किसी को वोट नहीं देना है, ऐसा करने पर मतदान केंद्र पर तैनात अधिकारी वहां रखे एक रजिस्टर पर आपका नाम अंकित कर लेगा। मतगणना के दौरान यह स्पष्ट हो जाएगा कि आपके क्षेत्र में कितने लोगों ने मतदान करने से इंकार कर दिया, यानि उम्मीदवार उन्हें पसंद नहीं थे। निर्वाचन आयोग के नियम 49(ओ) के तहत ऐसी व्यवस्था है। पिछले कई चुनावों से ऐसी व्यवस्था है लेकिन इसका विशेष प्रचार-प्रसार नहीं हो सका है।
चुनाव के समय नेता जनता के बीच में उपलब्ध तो रहते हैं, परंतु चुनाव जीतने के बाद वे क्षेत्र से गायब हो जाते हैं, राजनेताओं ने जनता से, जनता द्वारा और जनता के लिए के सिद़धांत को पूरी तरह भूला दिया है, अब वे जनता से दूर होने की परंपरा अपना रहे हैं इसकी जिम्मेदार जनता ही है, जो ऐसे लोगों को जिता कर विधानसभा, संसद व अन्य स्थानीय निकायों में भेज रही हैं, जिनके पास सिर्फ बाहुबल व पैसे का जोर है, ऐसे में पैसे के बल पर जीता प्रत्याशी कितना जनता से जुडा रहेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है, इस सवाल का हल जनता को ही खोजना होगा,ऐसे हालात से बचने के लिए जरूरी है कि हम ऐसे व्यिक्त का चयन करें, जो जनता से जुड़ा हो न कि पैसे की सीढी लगाकर जीत तक पहुंचे.
हमारी राय में वोटरों को नापसंद प्रत्याशियों को ठुकराने का अधिकार बिल्कुल मिलना चाहिए। क्योंकि चाहे जो दल हो गादी प्रत्याशी उतारना उनकी मजबूरी हो गया है। चुनाव लड़ने और जीतने के लिए आज के दौर में जितने हथकंडे अपनाने पड़ते हैं उतने कोई शरीफ और ईमानदार व्यक्ति नहीं कर सकता। एसे में अगर किसी भी सीट के सभी प्रत्याशियों की सूची पर गौर फरमाये तो कोई सांपनाथ नजर आता है तो नागनाथ। इस स्थिति में वोटर के समक्ष इन्हीं में से किसी को चुनना पड़ता है। अगर प्रत्याशी नकारने का अधिकार मिल जाये तो वोटर सभी दलों को सबक तो सिखा सकता है। अगर वोटर एक बार भी अपने इस हक का इस्तेमाल कर ले तो सभी दल अपनी इस आदत में सुधार ले आयेंगे।
यह जनता का फर्ज है कि वह जो भी फैसला करे पूरे माप-तौल के बाद करे। ऐसे लोगों को चुने जो देश का हित करने वाले हों। चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल के हों और सरकार चाहे किसी भी दल की बने।
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दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है, इसका हमें पता भी नहीं चलता। सुबह उठने के बाद
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5 years ago
4 Comments:
ndtv india मे बताया था 17C, bhaskar news paper me 17A और आज आप बता रहे हैं 49O सही क्या है? मैं काफ़ी कंफ़्यूज हूं.
49 O ही है।
49 O का मतलब है कि आप वोट डालने गये, लेकिन पंजीकरण के बाद आपने वोट न डालने का निश्चय किया। इसलिये आपका "वोट" गिना नहीं जायेगा। इस तरह 49 O आपके अच्छे-भले वोट को पंगु बनाने का क्रियाकलाप है। विस्तार से यहाँ पढ़ें!
अच्छी जानकारी है आपके ब्लॉग पर........
अच्छी जानकारी दी है आपने ... पर राजनीति में सुधार आ जाए ... तभी संतोष हो सकता है।
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