मेरे कमरे की खिड़की से

रोज़ सुबह

मुस्कुराता हुआ आता है

सूरज

मेरे सारे क्रिया कलापों का

गवाह बनता है

सूरज

मेरे जीवन की कशमकश और

ज़द्दोज़हद को

बड़ी शिद्दत से देखता है

सूरज

कहता कुछ नहीं, बस

मूक दर्शक बना रहता है

सूरज

और शाम को जाते हुए

रोज़ मेरी उम्र का एक दिन

साथ ले जाता है

सूरज


जो था, वो अब नहीं है


जो है, वो सब नहीं है


सबकी पसंद है वो


फिर भी वो रब नहीं है


उसकी वफ़ाएं – ख़ारिज


जिसमें, अदब नहीं है


वो , क्या करेगा हासिल


जिसमें - तलब नहीं है


ईमान का करें क्या?


ईनाम जब नहीं है


इस - भागते सफ़र में


कुछ भी अजब नहीं है


चुटकुलों का खजाना .....


मेरे ब्लॉग ''गुदगुदी'' पर एक बार अवश्य पधारें -


अँधेरे में तो संभल ही नहीं पाते हैं लोग
पर रोशनी में भी फिसल जाते हैं लोग
रोतों होओ का तो साथ देते ही नहीं लोग
हँसते हुवों को भी रूला देते हैं लोग
गैरों की महफ़िल मे तो भर भर के पीते हैं लोग
अपनों की महफ़िल मे लुत्फे-मय गिरा देते हैं लोग
कांटो से तो लाजिम है, नफरत करते ही हैं लोग
जाने क्यों फूलो से भी खार खाते हैं लोग
ये फितरत है उनकी , तमाशाई हैं लोग
बुझा के चिराग , रोशनी ढूंढते हैं लोग



शायद ये मेरा वहम हो मेरा ख्याल हो



मुमकिन है मेरे बाद ही मेरा मलाल हो



पछता रहा हो अब मुझे दर से उठा के वो



बैठा हो मेरी याद में आंखें बिछा के वो



उसने भी तो किया था मुझे प्यार ले चलो



उसकी गली में फिर मुझे एक बार ले चलो



उसकी गली को जानता पहचानता हु मैं



वो मेरी क़त्लगाह है ये मानता हु मैं



उसकी गली में मौत मुक़द्दर की बात है



शायद ये मौत अहले वफ़ा की हयात है



मैं ख़ुद भी मौत का हु तलबगार ले चलो



उसकी गली में फिर मुझे एक बार ले चलो



दीवाना कह के लोगों ने हर बात टाल दी



दुनिया ने मेरे पाँव में ज़ंजीर डाल दी



चाहो जो तुम तो मेरा मुक़द्दर सँवार दो



यारों ये मेरे पाँव की बेडी उतार दो



या खींचते हुवे सरे बाज़ार ले चलो



उस की गली में फिर मुझे एक बार ले चलो।



...अनजान

एक ठिठुरती रात में ठंडी चट्टान पर
खड़े पुराने पीपल के पेड़ के नीचे
अन्धेरा सहमा सहमा , डरा डरा सा खडा था
और थर थर काँप रहा था
मैंने करुना वश पूछा - क्या हुआ?
परेशान , घबराया वह बोला-
यह नया साल क्या होता है?
इसमें इतना जश्ने-बहारां और शोर शराबा
क्यों होता है?
मैंने कहा - जब जीवन के अनमोल
३६५ दिन १-१ कर के चुक जाते हैं
हर बार हाथ खाली ही रह जाते हैं
उम्मीदों की कलियाँ खिलने से रह जाती हैं
श्वास खज़ाना कुछ और कम हो जाता है
जीवन भी जब कुछ और सिकुड़ जाता है
तब किसी अनजानी अनचीन्ही आशा में
लोग फिर से गिनती की शुरुआत करते हैं
वो ही नया साल कहलाता है
उसने असमंजस से पूछा- इसमें नया क्या है?
मैं बोला - नै उमंगें/नया उत्साह/नई ऊर्जा/नया संकल्प ....
खिलखिलाकर हंसा अन्धेरा और व्यंग से बोला-
इसमें नया क्या है? यह सब तो रोज़ होता है॥
पक्षी रोज़ नया गीत गुनगुनाते हैं,
फूल रोज़ नए तरीके से थिरकते हैं
भव्य सूर्योदय रोज़ नई उमंगें, नया उत्साह
और नई ऊर्जा लाता है॥
पर आदमी ही आँखे मूंदे रहता है॥
क्या नए साल में
आदमी की फितरत बदल जायेगी
परिस्थितियाँ संभल जांयेंगी ?
मन की अवस्था संवर जांयेगी?
मैं बोला - संकल्प से सब सिद्ध हो जाएगा
वो उदास होकर बोला-शायद कुछ भी नहीं होगा-
मैं सतयुग से कलयुग तक..युगों से गवाह हूँ
पुराना तो बीत जाता है और
नया भी आ कर ठहर नहीं पाटा है
पर आदमी बिना बदला ही रह जाता है
समय की प्रचंड आंधी में संकल्प उसका
तिनके तिनके सा बिखर जाता है
और कुछ भी सिद्ध नहीं हो पाता है
अहंकार , नफरत, क्रोध, स्वार्थ, ईर्ष्या
बढते ही जाते हैं, और
विनम्रता । प्यार, करुना , परमार्थ , प्रसन्नता
कम होते जाते हैं,
हैवानियत बढती तो इंसानियत कम होती जाती है
यह एक त्रासदी है की नए साल मे भी आदमी की
ज़िन्दगी पहले सी बेबस ही बीत जाती है।