बिमारी-ऐ-हस्ती की दवा क्यूँ नही आती,
जी भर गया दुनिया से कज़ा क्यूँ नही आती।
हर कुल्फत-ऐ-इंसान को जो जद्द ही से मिटा दे,
आलम में कोई ऐसी बवा क्यूँ नही आती

गुलशन की निगहबानी का झगडा ही निपट जाए,
होठों पे तबाही की दुआ क्यूँ नही आती ।
हर एक पे कर लेते है बेफिक्र भरोसा,
हम जैसों को जीने की अदा क्यूँ नही आती ॥

इक रोज़ के फाका से खुला राज़ कि आख़िर,
किस्मत की तिजतात में हया क्यूँ नही आती ।
कहते है कि हर चीज़ में तू जलवा नुमा है,
फिर मुझको नज़र तेरी जिया क्यूँ नही आती ॥

खून रेजी-ओ-बर्बादी पे काम है उनके,
सीनों से नेलामत की सदा क्यूँ नही आती ।
मजलूम पे टूटे है मुसीबत पे मुसीबत,
सर-ऐ-जालिम पे बाला क्यूँ नही आती ॥

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यही साथी है अब मेरे गम हो या खुशी की बात,
मौका कोई भी रहे पर यह छोडे न मेरा साथ ।
हर सह में दोस्त बनके रहते है यह आँखों में,
छुपा जाते है चादर बन के यह दिल के जज़्बात ॥

2 Comments:

उम्मीद said...

बहुत अच्छी कविता ...
लिखते रहिये
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दिगम्बर नासवा said...

हम जैसों को जीने की अदा क्यूँ नही आती ॥

आपको लिखने की कला बाखूबी आती हो......
बहुत सुन्दर है रचना....