पूछा किसी ने हाल किसी का तो वो रो दिए,
पानी में अक्श चाँद का देखा तो वो रो दिए।
नगमा किसी ने साज़ पर छेड़ा तो वो रो दिए,
घुंचा किसी ने शाख से तोडा तो वो रो दिए।
उड़ता हुआ गुबार सरेराह देख कर,
अंजाम हमने इश्क का सोचा तो वो रो दिए।
बादल फिजा में आप की तस्वीर बन गए,
साया कोई ख़याल से गुज़रा तो वो रो दिए।
रंग-ऐ-शफक से आग शागोफों में लग गई,


सागर हमारे आँखों से छलका तो वो रोदिये। ।

एक दुबली-पतली पर पैनी और तेज़ी भरी काया के 29 वर्षीय राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के कमांडो सुनील कुमार यादव का यह कहना है, “जब ताज होटल के कमरों में घुसकर हम वहाँ फंसे लोगों को विश्वास दिलाते थे कि अब वो सुरक्षित हैं तो उनकी आंखों में हमारी छवि किसी भगवान से कम नहीं नज़र आती थी। ये गर्व के क्षण थे, इन्हें कभी भुला नहीं सकते हम..."

सुनील कुमार यादव एनएसजी के कमांडो हैं. उन्हें ताज में चरमपंथियों से मुठभेड़ के दौरान तीन गोलियाँ लगी थीं. लेकिन मुंबई के बाम्बे अस्पताल में भर्ती सुनील की आंखों में दर्द की एक लकीर तक नहीं है. सुनील बताते हैं कि मिशन पर जाने से पहले फ़ोन, घर-परिवार, आगे-पीछे के सवाल, पहचान और बाकी तमाम बातें भूल जाते हैं। याद रहता है तो सिर्फ़ मिशन. सुनील बताते हैं कि हम आदेश मिलते ही रात को दिल्ली से रवाना हुए. मुंबई हवाई अड्डे से सीधे सचिवालय के पास पहुँचे और फिर टीम बना दी गईं.

इसके बाद 27 तारीख सुबह ताज में सबसे पहले अंदर जाने वाले कमांडो दस्ते में मैं था। हमने छठी मंज़िल से अपना काम शुरू किया. वहाँ से लोगों को निकालते और चरमपंथियों से मोर्चा लेते हुए हम नीचे की तरफ़ आ रहे थे. तीसरी मंज़िल तक पहुंचने में रात होने लगी थी. हम लोग रात के चश्मों के सहारे सब कुछ देख पा रहे थे. पूरी इमारत में घुंआ भरा हुआ था. एक-एक कमरे की तलाशी का काम चल रहा था. कमरों के अंदर फंसे लोग घबराए हुए थे कि बाहर कहीं चरमपंथी न हों. हम लोगों के लिए चुनौतीपूर्ण यह था कि कहीं चरमपंथी भी लोगों को बंधक बनाकर कमरे में मौजूद न हों. लोग पुलिस-पुलिस की आवाज़ पर भी कमरे नहीं खोल रहे थे. इस दौरान हमारा साथ दे रहे थे होटल के कुछ कर्मचारी. विदेशी भाषाओं में बात करके वे फंसे हुए लोगों को समझा रहे थे, ताले खोलने में हमारी मदद कर रहे थे.

"हम जैसे ही कमरों में जबरन दाख़िल होते थे, लोग डर के मारे सांसें रोककर खड़े हो जाते थे। जैसे ही उन्हें समझ आता था कि हम उन्हें बचाने आए हैं, वे रोने लगते थे, बदहवास हो जाते थे, हमसे गले मिलने लगते थे. मैंने इन लोगों की आंखों में अपने प्रति एक भगवान के आ जाने जैसा भाव देखा है. यही बात हमें ताकत दे रही थी. इस ऑपरेशन की यह सबसे पहली याद रहेगी मेरे ज़हन में. चरमपंथियों से मोर्चा लेते हुए जब मैं ताज की तीसरी मंज़िल पर पहुँचा तो वहाँ किसी तरह से एक कमरे में खुद को छिपाकर बैठी एक अधेड़ उम्र की विदेशी महिला को बाहर निकाला. इस महिला को कवर करता हुआ मैं अगले कमरे की ओर बढ़ा. दरवाज़ा खोलते ही गोलियों की तड़तड़ाहट हुई. कमरे में एक चरमपंथी घात लगाए बैठा था. होटल कर्मचारी घायल हो गया. मैंने जवाबी गोलीबारी की पर अब मेरे लिए पहले इन दोनों लोगों की जान बचाना ज़्यादा बड़ी प्राथमिकता थी. अब तक दरवाज़ा बंद हो गया था पर गोलियाँ दरवाज़े के पार आ रही थीं. मैंने दोनों लोगों को खींचकर गोलियों के दायरे से बाहर किया. अब तक तीन गोलियाँ मेरे पीछे धंस चुकी थीं."

इसे कहते हैं...रीयल जिंदगी का हीरो. ये हैं सचमुच में देश के स्टार। परन्तु दुर्भाग्य से इन सितारों को सरकार और जनता वह सम्मान और स्थान भी नही देती जो फिल्मी और क्रिकेट के सितारों को अनायास ही मिलता है।

साभार- बी.बी.सी.


टूटा जो आ के लब पे, तेरा नाम ही तो है,
दिल में बस एक ख्वाहिश-ऐ-नाकाम ही तो है।


पहला क़दम ही आखिरी है, उठ सके अगर,
मंजिल यकीन-ऐ-इश्क की एक गाम ही तो है।


रहने दो वापसी के लिए रास्ता खुला,
वो बद नही है, एक ज़रा बदनाम ही तो है।


साबित करेगा क्या कोई हम पर जफा का जुर्म,
एक रोज़ ढल ही जायेगा, इल्जाम ही तो है।



उन्होंने देखा और आँसू गिर पड़े,


भारी बरसात में जैसे फूल बिखर पड़े।


उन्हों ने कह दिया अलविदा...


और कहकर ख़ुद ही रो पड़े।



साथ रहते-रहते यूँ ही वक्त गुज़र जायेगा,


बाद कौन किसे याद आएगा।


जी लो ये पल जब साथ है,


कल क्या पता वक्त किसे कहाँ ले जायेगा।



हम याद रहें तो ठीक, वरना भुला देना।


हुई हो कोई खता हमसे, तो सजा देना।


वैसे तो हम हैं खाली कागज़ की तरह,


लिखा जाए तो ठीक, वरना ज़ला देना।





अपनी आंखों की अश्कों से,


तुम्हारी आंखों में बहार लिखूँ।


कि अपने ग़मों की स्याही से,


तुम्हारे होठों पे मुस्कान लिखूँ।


क्या लिखूँ ऐ दोस्त तू ही बता,


अपने मोहब्बत-ऐ-ज़ज़बात से,


तेरी ज़िन्दगी में प्यार लिखूँ।



मन में सबके अरमान नही होता,


हर कोई दिल का मेहमान नही होता।


पर जो दिल में एक बार समा जाए,


उसे भूल जाना आसान नही होता।



छुप-छुप के तनहा रो लेंगे,


अब दिल का दर्द किसी न बोलेंगे।


नींद आती नही है रातों को अब,


जब आएगी मौत तो जी भर के सो लेंगे।




हमेशा मुस्कुरा के आंसूओं को छुपाया,
गम को छुपाने का यही रास्ता नज़र आया।

किस- किस को बताते बहते अश्कों का सबब,
कि दर्द-ऐ-दिल दिल में किस ने जगाया।

महफिलों में कहीं भी मज़ा न रहा,
रखा दिल पे पत्थर तो ख़ुद को सजाया।

बात बे बात अपनी आहें दबा कर,
यारों के दरमियाँ किस कदर मुस्कुराया।

न थी चाह कभी मुझे मंकाशी की,
जाम-ऐ-वफ़ा किसी भी वफ़ा ने पिलाया।

क्या मुक़दर से शिकवा करते रहें,
जो किस्मत में था वोही कुछ तो पाया।

यह किस मोड़ पे आ गई हैं उमीदें,
के साया-ऐ-मंजिल नज़र में न आया।

अपनों ने पलट के देखा तक नहीं,
गैरों ने आकर गले से लगाया।

अच्छा हुआ कि राज़ खुल ही गया,
दिल-ऐ-नादान पे खंजर किस ने चलाया।

शब्-ओ-रोज़ चाहत का सिला ये है शाकी,
दिल के टुकड़े हुए, और वो चुनने न आया।



अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर पे हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर, उधर के हम हैं,
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दुसरे घर के हम हैं।


वक्त के साथ है मिटटी का सफर सदियों तक,
किसको मालूम कहाँ के हम किधर के हैं,
चलते रहते हैं की चलना है मुसाफिर का नसीब,
सोचते रहते हैं किस राहेगुज़र के हम हैं.