जो रहते हैं सदा दिल में, उन्हें ढूँढा नही करते,
जो रच जाएँ राग-ओ-पय में, उन्हें सोचा नही करते।

बहारों के घने साए में तल्खी भी है, चुभन भी है,
ग़मों की धुप का तुमसे मगर शिकवा नही करते।

नही आते कभी भी लौट कर गुज़रे हुए मौसम,
बरसते बादलों की आस में तरसा नही करते।

ताजसुस और बढ़ता है मचल जाते हैं सुन कर हम,
अचानक प्यार की बातों का रुख मोड़ा नही करते।

तेरी नज़र-ऐ-इनायत से हुए जाते हैं जो घायल,
उन्हें कातिल निगाहों से देखा नही करते।

बिछड़ के मुझ से तुम भी जी न पाओगे,
सच कहता हूँ मेरे बिन बहुत पछताओगे।
बर्दाश्त का पैमाना है मेरा भी बहोत वैसे,
बोलो कितना रुलाओगे, बोलो कितना सताओगे।


यादें मेरी सताएंगी, बातें मेरी रुलायेंगी,
मेरी निगाहों से तुम ख़ुद को कहाँ तक छुपाओगे।
साया भी हुआ करता है क्या कभी इंसान से जुदा,
तुम जहाँ भी जाओगे, साथ मुझको पाओगे।


कर देगा मेरा खलूस ये हालत तुम्हारी,
राज़-ऐ-दिल जुबां तक लाओगे, पर कह न पाओगे।
करता हूँ इंतज़ार उस लम्हें का मैं,
जब मुझे अपना कह कर पास बुलाओगे।

पहले बंगलौर, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली और अब फिर मुंबई । और आगे हो सकता है की उनका अगला निशाना वाराणसी या कोई और शहर हो। ऐसी खबरें अब धीरे-धीरे आम बात होती जा रही हैं। जिस तरह एक के बाद एक आतंकवादी देश की किसी भी कोने में बम बिस्फोट कर रहे हैं। ऐसा लगता है की वर्तमान सरकार में आतंकवाद से लड़ने की शत प्रतिशत इच्छा शक्ति का आभाव है। सुरक्षा एजेंसियां भी वक्त रहते उन्हें रोकने में सफल नही हो पा रही हैं। भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई पर बुधवार रात अब तक का सबसे बड़ा चरमपंथी हमला हुआ है. पूरी मुंबई के कई इलाक़ों में छोटे-छोटे ग्रुपों में चरमपंथियों ने गोलियाँ और बम बरसाने शुरू कर दिए. छत्रपति शिवाजी स्टेशन, ताज होटल, ओबरॉय होटेल, मेट्रो सिनेमा, डॉक, विले पार्ले समेत कई इलाक़ों में एक ही समय पर हुई सिलसिलेवार गोलीबारी हुई और कई जगह धमाके हुए. इससे पूरी मुंबई में अफ़रातफ़री का माहौल है. इस हमले में अभी तक १०१ लोग मारे गए हैं और लगभग २८७ लोग घायल हुए हैं। विभिन्न समाचार माध्यमों को भेजे ईमेल में डेकन मुजाहिदीन नामक संगठन ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली है.

बुधवार की रात जब हमलों की शुरुआत हुई तो मुंबई में अफ़रातफ़री मच गई और कई घंटों तक कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं था कि आख़िर मामला क्या है। टेलीविज़न पर दिखाई गई तस्वीरों में पुलिस अधिकारियों को सड़क पर हाथ में रिवॉल्वर और बंदूक लिए गाड़ियों की तलाशी लेते हुए दिखाई पड़े. मुंबई पुलिस ने इसे 'सुनियोजित आतंकवादी हमला' बताया है.

आज कल भारत में 'आतंकवादी' घटनाएँ क्यों हो रही हैं? क्या इन घटनाओं को आतंकवाद कहना भी चाहिए या ये महज़ क़ानून और व्यवस्था की घटनाएँ जिन्हें कुछ निजी स्वार्थों की वजह से 'आतंकवाद' का नाम दे दिया जाता है। भारत में पिछले कुछ समय पर नज़र डालें तो अनेक ऐसी घटनाएँ हुई हैं जो भारत की क़ानून और व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक नेतृत्व और सरकार के लिए भी चुनौती हैं लेकिन क्या इस चुनौती का सामना करने के लिए समुचित रणनीति पर ग़ौर किया जा रहा है या फिर इन हालात को राजनीतिक स्वार्थों के लिए भुनाने की कोशिश की जा रही है?

इतना ही नहीं, एक तबका इन्हें हिंदू और मुसलमानों से भी जोड़कर देखने लगा है. मगर इसमें धर्म को खींचना ग़लत है. जो लोग क़ानून के ख़िलाफ़ जो भी कार्रवाई करते हैं वे सब क़ानून की नज़र में अपराधी हैं और उनके साथ उसी के अनुसार बर्ताव होना चाहिए. इसमें हिंदू या मुसलमान होने की कोई बात ही नहीं है. क़ानून की नज़र में अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसी के अनुसार उनका दर्जा तय होना चाहिए.
आतंकवाद का इस्तेमाल किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया जाता था लेकिन अब इसकी परिभाषा कुछ बदल गई है, आतंकवाद का मतलब होता था किसी राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए की गई विध्वंसक कार्रवाई लेकिन अब इसका मतलब कुछ बदल सा गया है. भारत में जो बम विस्फोट की घटनाएँ हो रही हैं उनका राजनीतिक लक्ष्य सरकार को अस्थिर करना हो सकता है. इन घटनाओं को तथाकथित इस्लामी आतंकवाद या हिंदू आतंकवाद से नहीं जोड़ा जा सकता। ऐसे माहौल में किसी घटना की सच्चाई क्या है, उसे जानने का इंतज़ार करने के बिना बहुत से लोग आनन-फानन में कोई राय बना लेते हैं जिसे देश और समाज का शायद इतना बड़ा नुक़सान हो जाता है जिसकी भरपाई करना अगर असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल ज़रूर होता है. क्या मीडिया को ऐसे माहौल में संयम बरतने की ज़रूरत है.

मुसलमान भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है और उनके एक तबके में ये भावनाएँ पनप रही हैं कि इस समुदाय को दबाने की कोशिश की जा रही है और ऐसा जब भी होता है वो राजसत्ता की मदद से होता है। चिंता की बात ये है कि राजनीतिक नेतृत्व की उदासनीता की वजह से एक धर्मनिर्पेक्ष देश में समाज सांप्रदायिक रास्तों पर बँटता नज़र आने लगता है. इसके लिए राजनीतिक स्वार्थ ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है जिसे रोकना होगा. मेरी समझ में राजनीतिक नेतृत्व ही सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है. जब भी कोई घटना होती है तो उन सबका ध्यान सिर्फ़ वोट की राजनीति पर होता है. अगर वोट की राजनीति ना हो तो, बहुत सारी घटनाएँ हो ही नहीं. मुझे सबसे बड़ा अफ़सोस यही है कि जिनके हाथ में क़ानून को लागू करने की ज़िम्मेदारी है, वो ऐसी कोई घटना होने क्यों देते हैं और अगर कोई घटना हो जाती है तो जो गुनहगार हैं उन्हें पकड़कर सख़्ती से सज़ा क्यों नहीं दिलवाते हैं.

गूगल पर टाइप कीजिए ‘बम कैसे बनाना है’ और आपको वेबसाइट की सूची मिल जाएगी जिसपर आपको बम बनानी की सामग्री, माप, दिशानिर्देश, यानी कुल मिलाकर किसी को मारने के लिए सारे तरीके बारीकी से मिल जाएंगे। लेकिन, सवाल यह खड़ा होता है कि लगातार हो रही आतंकवादी घटनाओं के बावजूद ऐसी जानकारियां क्यों आसानी से उपलब्ध है? ऐसे खतरनाक विषय पर जिन सर्वर के जरिए भारत में सारी इंटरनेट सामग्रियां पहुंचाई जाती हैं, उन इंटरनेट सेवा प्रदाताओं का कहना है कि उन्हें इस चीज को हटाने के लिए दिशानिर्देश की जरूरत है। इंटरनेट सुरक्षा विशेषज्ञ राजेश छारिया का कहना है कि, “हम ऐसी वेबसाइट को पांच मिनट में बंद कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमें सरकारी आदेश की जरूरत है”। तो फ़िर सरकार ऐसे आदेश जारी करने में देर क्यो कर रही है? अब यह यह महसूस किया जा रहा हैं कि आतंकवादी घटनाएं केवल राज्यों का ही मामला नहीं है तथा केन्द्र को इस खतरे से निपटने के लिए राज्य सरकारों से पूरा सहयोग करना चाहिए।

अगर हम इस बहस को सीमित करते हुए यह कहें कि दरअसल यह कोई 'आतंकवाद' नहीं बल्कि क़ानून और व्यवस्था का एक मामला है तो शायद कुछ ग़लत नहीं होगा क्योंकि अनेक जानकारों का मानना है कि हर समस्या की कोई ना कोई जड़ होती है और उसमें हिंदू- मुसलमान या ईसाई रंग ढूंढना ग़लत है। ऐसे में क्या राजनीतिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी इस ख़तरनाक मानसिकता को बढ़ने से रोकने की नहीं है। क्या सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि समस्या की जड़ को समझने की कोशिश करे और उसी के अनुसार कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे समाज को बँटने से रोका जा सके. भारत के शीर्ष नेता इसे कब तक हल कर पायेंगे? ...इसी तरह के अनगिनत सवाल मेरे मन में आज उठ रहे हैं। और शायद ...........भारत की आम जनता के मन में भी उठते होंगे। ऐसे में एक आम आदमी क्या करे। उसका क्या कसूर है। हर जगह वो ही निशाना क्यो बनता है?आतंकवाद और आतंकवादियों का सिवाय आतंक और दहशत फैलाने के अलावा और कोई धर्म नही होता। उन्हें किसी के विकास और समृद्धि से कोई लेना-देना नही है। आख़िर यह बात लोगों के समझ में कब आएगी?

आज-कल तेज़ी से बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियों के देखकर ऐसा लगता है जैसे पूरे देश पर हमला हो रहा है। शायद अब वह समय आ गया है की जब केन्द्र सरकार को देश की आतंरिक सुरक्षा को लेकर कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। एक संघीय जाच एजेंसी होनी चाहिए। जिसे हर तरह से जाच करने की आज़ादी मिलनी चाहिए।सभी जाच एजेंसिया एक कमांड के तले कार्य करे तो बेहतर परिणाम की उम्मीद की जा सकती है। केन्द्र सरकार को चाहिए की वह सभी राज्यों के साथ मिलकर एक ऐसी अंतर्राज्यीय जांच एजेंसी का निर्माण करे जो हर तरह से परिपूर्ण हो। जो पूरे देश में एक समान रूप से लागू हो। या फिर, भारत की सर्वोच्च जाच संस्था सी बी आई को अमेरिका की जाच संस्था ऍफ़ बी आई जैसी पावर और अधिकार मिलने चाहिए। ताकि वह किसी भी प्रकार के राजनैतिक दबाव में न आए और स्वतंत्र और निष्पक्ष जाच करे। भारत की पुलिस तंत्र को और मजबूत करने की बेहद ज़रूरत है। हर राज्य की पुलिस और केन्द्रीय खुफिया एजेंसियों में अच्छा और फास्ट तालमेल होना चाहिए। वैसे तो भारत ही नही पूरा विश्व आतंकवाद से जूझ रहा है, लेकिन चूँकि भारत सदा से शान्ति का पुजारी रहा है, और वो आगे भी विश्व समुदाय को शान्ति और अहिंसा का मार्ग दिखाता रहेगा। कुछ लोग इसे भारत की कमजोरी समझते हैं। पर हमारी सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए की विश्व समुदाय इसे भारत को अपनी कमजोरी के रूप न देखे। नही तो देश की स्थिति दिनों-दिन और भी बदतर होती जायेगी और आम जनता में भय और दहशत का माहौल व्याप्त हो जाएगा। लेकिन ऐसा लगता हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों की इच्छा शक्ति मे ही कुछ कमी है।


उस को मेरा हल्का सा एहसास तो है,
बेदर्द ही सही वो मेरी हमराज़ तो है।

वो आए न आए मेरे पास लेकिन,
सिद्दत से मुझे उसका इंतज़ार तो है।

अभी नही तो क्या हुआ, मिल ही जायेगी कभी,
मेरे दिल में उससे मिलने की आस तो है।

प्यार की गवाही मेरे आंसुओं से न मांगो,
बरसती नही आँखें मगर दिल उदास तो है।

रंग-ओ-खुशबू कहाँ बहार में है,
और किसी शेह में इस कदर है कहाँ,
जो इत्मिनान और सुकून प्यार में है।
उनका हासिल भी लुत्फ़ हो शायद,
कहाँ वो लुत्फ़ जो इंतज़ार में है।
साज़ तो दिल से आ निकलता है,
भला कहाँ वो हुनर तार में है।

होठों पे मोहब्बत के फ़साने नही आते
साहिल पे समुन्दर के हजाने नही आते
पलकें भी चमक उठी हैं सोते ही हमारी
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नही आते।


दिल उजड़ा है एक सराए की तरह है
अब लोग यहाँ रात जगाने नही आते
यारों नए मौसम ने ये एहसान किए हैं
अब याद संजोये दर्द पुराने नही आते।


उड़ने दो अभी परिंदों को खुली हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नही आते
इस शहर के बादल तेरी जुल्फों की तरह हैं
ये आग लगाते हैं पर बुझाने नही आते।


अहबाब भी घरों की तरह अदा सीख गए हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नही आते।

आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नही आते।

होठों पे मोहब्बत के फ़साने नही आते।

दुनिया भर में विख्यात बिहार के सोनपुर का हरिहरक्षेत्र पशु मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला माना जाता है और यहाँ अनेक देशों के लोग घूमने आते हैं. कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाले इस वार्षिक मेले में विदेश से भी लोग आते हैं.

इस मेले में अगर घोड़े की क़ीमत तीन लाख रुपए तक है तो यहाँ बिकने वाले समोसों की क़ीमत भी अपने आप में एक रिकार्ड है। कई बार ख़रीददार अपनी शान का प्रदर्शन करने के लिए भी मुँहमांगी क़ीमत अदा करते हैं। क़रीब दो वर्ष पहले रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के घोड़े 'चेतक' को ख़रीदने के लिए बोली लगी और वह एक लाख एक हज़ार रुपए में बिका. इस वर्ष एक विक्रेता ने अपनी एक घोड़ी क़ीमत तीन लाख तय की है तो वैशाली के कौशल किशोर सिंह के घोड़े की बोली एक लाख सत्तर हज़ार रुपए लग रही है.

सैलानी यहाँ जो भी खरीदारी करते हैं और उसकी जो क़ीमत चुकाते हैं, वह सामान्य से कई गुना ज़्यादा होती है पर उनके लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। मेले की भीड़-भाड़ में अपनी दुकान सजाए दुकानदारों का अपना मत है। वे कहते हैं की मेले में बिकने वाली चीज़ों की क़ीमत अगर सामान्य हो तो ख़रीददार के लिए इसमें कोई ख़ास आकर्षण नहीं होता और दूसरी बात यह है कि हमारी भी कोशिश होती है कि हम कुछ अधिक कमा सकें लेकिन अगर चीज़ों के दाम बिल्कुल असमान्य हों तो यह किसी भी तरह अच्छी बात नहीं है।

गंगा और गंडक के मुहाने पर लगने वाले इस मेले का इतिहास राजा चंद्रगुप्त मौर्य के ज़माने से जोड़ा जाता है. कहा जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य अपनी सेना के लिए हाथियों की ख़रीददारी गंगा के इसी क्षेत्र से करते थे. हालाँकि आज भी इस मेले में हाथी और घोड़े काफ़ी संख्या में ख़रीद-बिक्री के लिए लाए जाते हैं लेकिन वन्यजीवों की ख़रीददारी पर सख़्त क़ानूनी शिकंजे के कारण रफ़्ता-रफ़्ता इस मेले का आकर्षण भी कम हुआ है.
लेकिन राज्य सरकार अब इस कोशिश में जुटी है कि इस मेले की पुरानी रौनक़ फिर से बहाल हो सके. इससे बिहार के पर्यटन उद्योग के साथ-साथ सोनपुर के विकास को बढावा मिलेगा और स्थानीय जनता को भी फायदा पहुचेगा।