पिछली शताब्दी में हमने बहुत सी प्राकृतिक आपदाएं देखी, सुनी और झेली। तूफान, चक्रवात, जंगलों की आग, बाढ़ आदि बहुत सी प्राकृतिक आपदाएं आईं यानी हम कह सकते हैं कि पृथ्वी अपने पर हुए अत्याचार के बदले में अपना गुस्सा प्रकट कर रही थी। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से कितने ही द्वीप देखते ही देखते काल के गर्त में चले गए। समुद्र का स्तर बढ़ जाने से द्वीप डूब रहे हैं उधर कार्बन उत्सर्जन से तापमान बढ़ रहा है। बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियों में पानी नहीं है। कहीं बाढ़ आ रही है तो कहीं सूखा पड़ रहा है। पानी में आर्सेनिक, लोराइड और अब तो यूरेनियम तक मिल रहा है। परिणामस्वरूप पानी और धरती विषैले हो रहे हैं। वर्तमान समय में यह समस्या बहुत जटिल रूप धारण करने जा रही है। वह है पीने के साफ पानी की बढ़ती माँग। समस्या के विकराल होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आए दिन पानी को लेकर मार-पीट, झगड़े न केवल लोगों के बीच बल्कि राज्यों और देशों के बीच भी हो रहे हैं।


विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक बीस वर्ष में शुद्ध पेयजल की माँग दोगुनी रतार से बढ़ रही है, जबकि विकासशील देशों में पानी की आपूर्ति असमान है। दुर्भाग्य से कार्बन उत्सर्जन, भूमि की विषाक्तता बढ़ने तथा जमीन और पानी के बढ़ते प्रदूषण के मामलों में हम अब भी उतने सक्रिय और तेज नहीं हैं, जितना होना चाहिये। बजाय इसके कि हम अपने को किसी क्रियात्मक गतिविधि में लगाते, हम सिर्फ अपने उपभोग के तौर-तरीकों को “कथित” रूप से ठीक करने में लगे हुए हैं। इतना ही नहीं हम पर्यावरण के प्रति जागरुकता के अपने अल्पज्ञान को छिपाने की कोशिश करते हैं। हम इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते कि हमारे आसपास आवश्यक संसाधन और बुनियादी सुविधाओं की क्या स्थिति है? अलबत्ता पश्चिमी जीवनशैली की टैक्स पद्धति को हम वैश्विक स्तर पर अपनाने लगे हैं। सच तो यही है कि हम अभी तक समस्या की सही पहचान ही नहीं कर पाये हैं कि दुनिया अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सामूहिक इंकार की स्थिति का सामना कर रही है। अगर यही हाल रहा तो आस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के प्रोफेसर फ्रैंक फैनर की यह भविष्यवाणी सही भी साबित हो सकती है कि "अगले सौ वर्षों में धरती से मनुष्यों का सफाया हो जाएगा।"


उनका कहना है कि ‘जनसंख्या विस्फोट और प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा इस्तेमाल की वजह से इन्सानी नस्ल खत्म हो जाएगी। साथ ही कई और प्रजातियाँ भी नहीं रहेंगी। यह स्थिति आइस-एज या किसी भयानक उल्का पिंड के धरती से टकराने के बाद की स्थिति जैसी होगी।’ फ्रैंक कहते हैं कि विनाश की ओर बढ़ती धरती की परिस्थितियों को पलटा नहीं जा सकता। पर मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता क्योंकि कई लोग हालात में सुधार की कोशिश कर रहे हैं। पर मुझे लगता है कि अब काफी देर हो चुकी है।


पानी की बढ़ती माँग और आपूर्ति के बीच सन्तुलन कैसे बनाया जाये इस बात पर विचार करने के लिये कोई न कोई दूरगामी नीति बनानी ही पड़ेगी। कुल मिलाकर पानी की बढ़ती माँग तथा उसकी अनिश्चित आपूर्ति समूची मानव प्रजाति को संकट में डालने जा रही है।



दूषित पानी साफ करने के उपाय :


दूषित पानी साफ करने के कई उपायों में रेत फिल्टर तकनीकी काफी उपयोगी साबित हुई है। यह पानी की स्वच्छता की सबसे पुरानी तकनीकी है, जिससे काफी अच्छे ढंग से तैयार किया गया है। इसके नए ढांचे में फिल्टर के सबसे ऊपर टोंटी लगाई जाती है, जिससे ठहरा पानी अपने आप रेत की सतह से 5 सेंटीमीटर ऊपर आ जाता है। इससे जैविक परत बनने के लिए उचित वातावरण प्राप्त होता है, जिसमें कई तरह के जीवाणु होते हैं, जो रोगाणु बैक्टीरिया को नष्ट करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यद्यपि रेत के फिल्टर में जटिल भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाएं शामिल हैं, लेकिन इस धीमे रेत फिल्टर को बनाने में इसका कोई झंझट नहीं है (बस एक घंटे का समय लगता है) जिसमें कंक्रीट और धातु के सांचे की जरूरत पड़ती है। इसका रखरखाव करना भी आसान है।


इसे तब ही अमल में लाया जाना चाहिए जब पानी का बहाव तेज हो। इसके लिए 5 सेमी तक रेत की सतह को साफ करने की जरूरत पड़ती है। पानी के फिल्टर के लिए आदर्श रूप से 0.2 से 0.3 मिली मीटर अन्न के दाने जितनी मोटी रेत को उपयोग में लाया जाता है, लेकिन इसके लिए खदान के रेत, धान की फूस तथा अन्य तरीकों को भी फिल्टर सामग्री के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।


अच्छी तरह से काम करने वाले रेत फिल्टर से परजीवी और ठोस चीजें साफ हो जाती हैं और एक आदर्श स्थिति में 99 प्रतिशत तक रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। इसकी कम से कम तीन सप्ताह के बाद ही जांच की जाती है, जिससे इसमें जैविक परत बनने के लिए पर्याप्त समय और अवसर बना रहे। इस पर अब तक किए गए प्रयोगों के काफी उत्साहजनक नतीजे सामने आए हैं। 17 मामलों को छोड़कर बाकी सब रेत फिल्टर में प्रति 100 मिली लीटर पानी में 10 से कम ई-कोलाई बैक्टीरिया उत्पन्न होता है।


इसका फिल्टर धातु के अलावा प्लास्टिक या स्थानीय तौर पर उपलब्ध किसी भी सामग्री से तैयार किया जा सकता है, बशर्ते इसमें निर्माण संबंधी बुनियादी बातों का पूरा ख्याल रखा जाए, जैसे : रेत परत की कितनी गहराई और बहाव की गति हो और रेत से कितने ऊपर जल का स्तर हो। कई लोग कंक्रीट के फिल्टर को ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि यह टिकाऊ होता है और इससे ठंडा पानी प्राप्त होता है।


अगर इस तरह का रेत फिल्टर बनाया जाए, जिसमें साफ रेत डाली जाए, तो शुरुआत में उसमें से प्रति मिनट 1 लीटर पानी मिलेगा, लेकिन अनाज के दाने जितने कंक्रीट में काफी कम समय में ज्यादा पानी प्राप्त होता है।



With spl.thanks to:Hindi water portal

1 Comments:

Rohit Singh said...

bahut achhe blog hain aapki................