आप रोज ही आईने में खुद को देखते हैं. जो
कुछ दिखाई देता है वो क्या है? वह आप ही का अक्श होता
है. आइये ज़रा खुद को आईने में देखने की प्रक्रिया को वैज्ञानिक तरीके से समझें. शुरुआत
होती है रौशनी के हमारे शरीर से टकराने से. रौशनी हमारे शरीर से टकरा कर आईने पर पड़ती
है और फिर वहा से परावर्तित (रिफ्लेक्ट ) होकर फिर हमारी आँखों में पड़ती है,
तब जाकर हमे हमारा अक्श दिखाई पड़ता है. प्रकाश की रफ़्तार (3
लाख किमी प्रति सेकेण्ड) इतनी तेज है कि इस प्रक्रिया का हमे पता ही नही चलता.
अब कल्पना कीजिये कि यदि इस प्रक्रिया को
धीमी कर दिया जाए तो क्या होगा? अगर प्रकाश कि रफ़्तार
धीमी नहीं की जा सकती तो ज़रा यह सोचिये कि यदि इस समय आप की उम्र 25 साल की हो और आप
जिस आईने में देख रहे हैं वह आप से इतनी ज्यादा दूरी पर हो कि वहा तक आप की रौशनी को पहुचने में 20 वर्ष लगते हों यानी दर्पण 20 प्रकाश
वर्ष दूर हो (मान लीजिये कि वह चीज दर्पण के स्थान पर कोई चन्द्रमा जैसी बड़ी गृह या
उपग्रह हो जो प्रकाश परावर्तित करने कि क्षमता रखता हो), तो ऐसी स्थिति में हमारे शरीर से परावर्तित रौशनी को उस परावर्तक तक पहुचने में 20 वर्ष लगेंगे और वहा से लौटकर हमारी आँखों में पड़ने में 20 वर्ष और लगेंगे. तब तक
हमारी उम्र 20 + 20 = 20 वर्ष और बढ़ चुकी होगी यानी तब हम 65 वर्ष के होंगे किन्तु
आईने में हमे हमारी उम्र 25 वर्ष की ही दिखाई देगी, अर्थात हम बुढ़ापे में हमारी जवानी देख रहे होंगे. कहने का सारांश यह था कि सैद्धांतिक
तौर पर भूतकाल को देखना संभव है.
इसी को और बड़े स्केल पर देखा जाए (यानि परावर्तक
ग्रह की दुरी बढ़ाकर) तो संभव है कि हम अपने किसी ख़ास दादा दादी, नाना नानी या किसी भी ऐसे व्यक्ति से मिल सकते हैं जो आज दुनिया
में जीवित नही है.
सूरज से धरती तक रौशनी को आने में 8 सेकेण्ड
लगते हैं, यानी सूरज पर हम जो कुछ भी देखते हैं,
वह 8 सेकेण्ड पहले हो चूका होता है. इसी प्रकार हम आसमान में
बहुत से ऐसे तारों की रौशनी देखते हैं जो कभी जीवित थे, पर आज वो वहाँ नही हैं.